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आगम-कार्य : विद्वानों से परामर्श से आपका अपना कार्य तो सुलभ होगा ही, साथ-साथ हमें भी बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।' उन्हें मुनिश्री द्वारा रचित जैन-दृष्टि की हस्तलिखित प्रति दिखाई। स्याद्वाद, नय-निक्षेप के प्रकरण उन्हें बहुत रुचे। उन्होंने कहा'जैन दर्शन पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं, परन्तु संतोषप्रद एक भी नहीं है। शायद आपकी यह पुस्तक उस कमी को दूर कर सके।' समयाभाव के कारण वे उसे पूरी नहीं पढ़ सके। किन्तु दूसरी बार यहां आने पर जैन-द्रष्टि को आद्यन्त पढ़ जाने की जिज्ञासा व्यक्त की और उसके सम्पादन का भार भी लेना चाहा।
डॉ. नथमलजी श्रद्धालु व्यक्ति हैं। बोलते कम हैं परन्तु कार्यक्षमता अपूर्व है। ____डॉ. इन्द्रचन्द्र शास्त्री आचार्यश्री के सम्पर्क में कई बार आ चुके थे। वे भी मंजे हए विद्वान् हैं और उन्होंने स्थानकवासी आचार्य जवाहरलालजी के साहित्य का सम्पादन किया है। उन्हें आगम-कार्य दिखाया गया। प्रारम्भ में उनमें कुछ अरुचि-सी देखी। इसका कारण संभवतः उनकी प्राचीन बद्धमूल धारणाएं और परम्परागत विचार थे। परन्तु ज्यों-ज्यों उनकी जानकारी बढ़ी, उन्हें यह विश्वास हुआ कि यदि जैन समाज में कुछ प्रामाणिकता व निष्ठापूर्वक कार्य करने की क्षमता है तो वह केवल आचार्य तुलसी और उनके शिष्यसमुदाय में है। मुनियों के श्रम, आचार्यवर की सूक्ष्म मेधा और कुशल अनुशासन तथा मुनिश्री नथमलजी की सर्वांगपूर्ण विद्वत्ता से वे आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सके। उनकी जिज्ञासा आगे बढ़ी। उन्होंने भी इस कार्य में हाथ बंटाने के लिए अपने आपको प्रस्तुत किया।
कुछ ही दिनों बाद जैन-दर्शन के विद्वान् श्री दलसुख मालवणिया भी कानपुर आए। वे डॉ. हीरालाल और श्री ए. एन. उपाध्ये के साथ यहां आना चाहते थे। परन्तु कार्यवश वे दोनों विद्वान् यहां नहीं आ सके। डॉ. नथमलजी टांटिया ने अपने अल्पकालीन कानपुर-प्रवास के संस्मरण पत्रों द्वारा उन्हें अवगत कराए थे। उसकी प्रेरणा से और स्वयंभूत जिज्ञासा से दलसुखभाई अपने दूसरे कार्यों को गौण कर आचार्यप्रवर के पास आए।
प्रातःकाल का समय था। बादल उमड़-घुमड़कर आ रहे थे। बूंदाबांदी हो रही थी। वन्दनकर वे आचार्यप्रवर के पास बैठ गए। औपचारिक वार्तालाप