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आगम-कार्य : विद्वानों से परामर्श
५१ सर्वप्रथम पाटलिपुत्र में वीर-निर्वाण के १६० वर्ष बाद एक परिषद् बुलाई गई। उस समय भद्रबाहु ही दृष्टिवाद के ज्ञाता रह गये थे। दुर्भिक्ष के कारण संघ छिन्न-छिन्न हो गया था। एकत्रित न हो सका। अतः वह असफल रहा।
दूसरी बार वीर-निर्वाण के ८२७ और ८४० के बीच आचार्य स्कंदिल की अध्यक्षता में सारा संघ एकत्रित हुआ। जितना स्मृति में था उसको लिपिबद्ध किया गया। साथ-साथ वलभी में आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में भी यह कार्य हुआ।
तीसरी बार वीर-निर्वाण के ९८० वर्ष बाद आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में एक बैठक हुई। उन्होंने उपर्युक्त दोनों वाचनाओं में संकलित पूर्वो का समन्वय कर पुस्तकारूढ़ किया।
तत्पश्चात् कोई भी सामूहिक वाचना नहीं हुई। लिपि-भेद या अन्यान्य कारणों से मूलागमों में नियुक्ति, भाष्य आदि का मिश्रण हुआ। व्याख्याओं में अन्तर पड़ा, दूसरे दर्शनों के भावों का समावेश हुआ। अन्यान्य दर्शनों से लोहा लेने के लिए नाना प्रकार की रचनाएं बनीं, व्याख्याएं हुईं । उनका असर आगम की आत्मा पर पड़ा। परम्परा में भेद आया। इतना होते हुए भी जैनाचार्यों ने उसकी सुरक्षा के लिए भरसक प्रयत्न किया। उपनिषदों की तरह आगमों में क्षेपक की बहुलता को रोका। फिर भी यत्र-तत्र कुछ त्रुटियां आयीं, परन्तु गत एक हजार वर्ष में किसी भी आचार्य ने आगम पाठों के स्थिरीकरण के लिए सामूहिक प्रयास किया ही नहीं।
कुछ वर्ष पूर्व आचार्यश्री तुलसी ने यह काम अपने हाथ में लिया और निरन्तर उसकी प्रगति में चिन्तनशील बने। उनके पास उचित सामग्री है। कार्य दिनोंदिन प्रगति पर है। सुसम्पन्न आचार्य द्वारा 'आगम-अन्वेषण कार्य' का आरम्भ सुनकर जैन विद्वानों को हर्ष हुआ और वे कार्य की गतिविधि को जानने के लिए प्रयत्नशील हुए।
__ कुछ दिन पूर्व वैशाली विश्वविद्यालय के असिस्टेण्ट डायरेक्टर डॉ. नथमलजी टांटिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्री इन्द्रचन्द्र शास्त्री, वेदान्ताचार्य आगम-कार्य को देखने के लिए कानपुर आये। त्रिदिवसीय प्रवास में उनसे अनेक विषयों पर बातचीत हुई। दोनों जैन-दर्शन के मंजे हुए विद्वान् हैं और जैन परम्पराओं व दार्शनिक तत्त्वों का अच्छा ज्ञान रखते हैं। आचार्यश्री ने