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आगम-सम्पादन की यात्रा आचार्यप्रवर ने कितनी बार कहा था कि 'आगम-कार्य जिनशासन का कार्य है। इसमें पूर्ण प्रामाणिकता और सचाई रहनी चाहिए। पूर्वाभिनिवेश, सम्प्रदाय का मोह या परम्परा का आग्रह कभी भी न आए।' ये शब्द आज भी आगम-क्षेत्र में काम करने वालों का पथ-प्रशस्त करते हैं। 'Works speak louder them voice' स्वयं कार्य ही इसका प्रमाण हो सकेगा-कथन मात्र से नहीं। दशवैकालिक का कार्य जब जनता के समक्ष आ जायेगा तब कई भ्रांतियां स्वयं नष्ट हो जायेंगी। 'वाचना' की विस्तृत रूपरेखा हम अपनी ओर से शीघ्र ही तैयार करने वाले हैं। अन्य जैन अधिकारी विद्वान् भी यदि इस विषय में कुछ कर सकेंगे तो सोचने-समझने का अवसर मिलेगा।
१७. आगम-कार्य : विद्वानों से परामर्श यह 'प्रवचन-काल' की बात है। ग्रन्थ-प्रणयन से पूर्व अध्ययन-अध्यापन का कार्य मौखिक होता था। गुरु अपने शिष्यों को मौखिक प्रवचन करते और शिष्य उन्हें सुनकर अपनी स्मृति में अंकित कर लेते। स्मृति की विशेषता थी कि जो जितना स्मृति में रख सकता वह उतना ही विद्वान् व ज्ञानी समझा जाता।
__ भगवान् महावीर ने जो कुछ कहा, गणधरों ने उसे ग्रहण किया और अपने उत्तरवर्ती शिष्यों को उसकी वाचना दी। यह गुरु-परम्परा अक्षुण्ण रूप से चलती रही। आप्त-वचन होने के कारण जैन-वाङ्मय 'आगम' कहलाया। केवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी चतुर्दशपूर्वधर और दशपूर्वधर की रचना को आगम कहा गया है। इनके द्वारा रचित आगम स्वतः प्रमाण हैं। साथ-साथ नव-पूर्वधर की रचना को भी आगम कहा गया इसकी संगति यों है कि उपर्युक्त पांच आगम रचने के अधिकारी हैं और नव-पूर्वधर आगम की रचना के अधिकारी नहीं, परन्तु प्रायश्चित्त आदि के उत्सर्ग-अपवाद नियमों की रचना में स्वतंत्र हैं। आगम का दूसरा नाम 'श्रुत' भी है। यह शब्द स्वयं 'प्रवचनकाल' की ओर स्पष्ट संकेत है। चार दुर्लभ वस्तुओं में दूसरी वस्तु 'श्रुति' है। यह भी उसी की परिचायिका है।
कालचक्र घूमा। भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ। स्मृति कम होने लगी। जैनाचार्यों ने महावीर-वाणी को संकलित करना चाहा। इसलिए तीन संगीतियां हुईं।