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सामूहिक वाचना का आह्वान
है । ऐसी अवस्था में पाठों का निर्णय कोई बड़ी बात नहीं है । पाठों के ऐक्य से यह भी नहीं समझना चाहिए कि अर्थ करने की स्वतंत्रता भी नहीं रहेगी। सभी सम्प्रदाय सारे सूत्रों के अर्थ करने में एकमत हो जाएं, यह असंभव है। इस असंभावित कार्य को उठाना तो स्वयं एक नई समस्या खड़ी करने जैसा होगा । पाठों में मतभेद पहले नहीं था, ऐसी बात नहीं है। चूर्णि, टीका आदि व्याख्यात्मक ग्रंथ इसके साक्षी हैं । उन सबका संकलन कर देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण एक निर्णय पर पहुंचे - यह उनकी विशेषता का द्योतक है । तत्पश्चात् धीरे-धीरे विभिन्न कारणों से पाठों में अन्तर आया और आज वह अन्तर बहुत दूर तक पहुंच चुका है । यदि आज भी इस ओर प्रयास नहीं किया जायेगा तो धीरे-धीरे निर्युक्ति आदि आगमेतर ग्रंथ भी उसमें समाविष्ट होकर मूलागम के शरीर को विकृत कर देंगे । ऐसा हो जाने पर जैन शासन की अवहेलना होगी और इसके हम ही उत्तरदायी ठहराये जायेंगे !
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अतः आवश्यकता है कि सभी सम्प्रदायों के आचार्य इस ओर विशेष ध्यान दें और निरपेक्ष दृष्टि से शासन - प्रभावना के लिए इस क्षेत्र में कुछ कार्य करने की सोचें । सर्वप्रथम ग्यारह अंग, बारह उपांग, मूल और छेद आदि-आदि आगम-ग्रन्थों के पाठों का संशोधन और स्थिरीकरण कर लेने पर परस्पर सौहार्द का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा और आगे भी सोचने-समझने का द्वार खुला रह सकेगा।
यह 'सामूहिक वाचना' कब, कैसे और कहां हो-यह स्वयं अधिकारीगण सोचें और शीघ्र ही किसी एक निर्णय पर पहुंचकर कार्य को गतिमान करें । साधनों की इस प्रचुरता के युग में यदि यह नहीं हो पायेगा तो अगली पीढ़ी हमारी बुद्धि पर हंसेगी और खिल्लियां उड़ायेगी।
अभी-अभी एक भाई ने उस आह्वान का स्वागत करते हुए लिखा था कि यह सामयिक आवश्यकता अवश्य है - परन्तु आचार्य तुलसी के आह्वान पर भी लोग विश्वास नहीं करेंगे, क्योंकि स्वयं आचार्य भी एक सम्प्रदाय के घेरे में हैं । उनका कहना कुछ हद तक ठीक है, परन्तु सिर्फ बद्धमूल मान्यताओं के आधार पर जीवनभर अविश्वास रखते ही जाना स्वयं अपने दुरभिनिवेश का प्रदर्शनमात्र है । प्रत्यक्षीकरण और वर्तमान में उनके अनुशासन में चल रहे आगम-कार्य के अवलोकन से मेरा विश्वास है कि अविश्वास की दीवारें ढह पड़ेंगी।