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आगम- सम्पादन की यात्रा
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हैं । कोई साकारोपासना में अपने साध्य को देखता है तो कोई निराकार की उपासना में । कोई तीर्थ-यात्रा से साध्य - सिद्धि मानता है तो कोई घर पर रहकर ही आध्यात्मिकता में लीन रहकर साध्य के दर्शन करता है । कोई वस्त्र परिधान से मुक्ति की ओर चल पड़ता है तो कोई नग्नत्व स्वीकार करता है । सभी ठीक हो सकते हैं, जहां तक कि ये साधन अध्यात्म से ओत-प्रोत हों। जहां भी या जब भी इनमें विकार आ घुसता है तब विकृति आती है और सारा ढांचा बिगड़ जाता है।
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अनेक साधनों वाली बात की पुष्टि करते हुए आचार्य विनोबा ने कहा था - 'यह सोचना गलत होगा कि किसी एक ही धर्म से विश्व में शान्ति स्थापित हो जायेगी। धर्म सभी अच्छे हैं और इसलिए जो जिसका धर्म हो वह उसी पर चले । जरूरत है धार्मिक सहिष्णुता व भ्रातृत्व की ।'
साधन अनेक होते हुए भी मनोमालिन्य न हो यह अपेक्षा है। इससे प्रेम बढ़ता है और आपसी प्रेम से विचारों का आदान-प्रदान सुगम हो जाता है । इतना हो जाने पर अपनी अपनी मान्यताओं की सुरक्षा करते हुए भी एक निर्णय पर पहुंचा जा सकता है ।
'सामूहिक वाचना' का यह तात्पर्य नहीं कि सभी की मान्यताओं को एक करने का प्रयास किया जाए । परन्तु इसका सही तात्पर्य यह है कि कम-से-कम मूल आगम के पाठों में सभी एकमत हो जाएं ताकि आगमिक तत्त्वों की अक्षरशः सुरक्षा की जा सके और उसकी एकरूपता को लोगों के सामने रखा जा सके। पाठों की विभिन्नता स्वयं पाठक को संशय में डाल देती है । तत्त्व का निरूपण जहां संशय के उच्छेद के लिए होता है वहां वह अकारण ही संशय पैदा करे यह कैसा न्याय !
जिस प्रकार 'वल्लभी वाचना' और 'माथुरी वाचना' का संकलन आचार्य देवर्द्धिगणी ने पक्षपात रहित दृष्टि से किया था - वही हमारा आधार - स्थल बन सकता है। मूलागमों में जहां भी पाठान्तर हैं उनका उल्लेख समुचित ढंग से हो इसमें किसी को आपत्ति नहीं हो सकती । परन्तु यदि कोई अपनी परम्परागत मान्यताओं के आधार पर या अभिनिवेश से अपनी ही बात रखना चाहे तो वह क्षम्य नहीं हो सकता। जहां तक हमारा ध्यान है कि अंग, उपांग आदि में पाठ को लेकर विशेष मतभेद नहीं है । मतभद तो केवल अर्थ करने की परम्परा में