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आगम- सम्पादन की यात्रा
है, ताकि अन्य संशोधक उस विराम को आधार बनाकर आगे सोच सकें ।
प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय आदि में अविभक्त ही होता है परन्तु ज्यों-ज्यों वह विस्तार पाता है, उसकी अविभक्तता नष्ट होती जाती है । वह इसलिए कि विचारों के सतत प्रवहमान प्रवाह में नये-नये उन्मेष आते हैं। कई उन्मेष स्थायित्व पा लेते हैं और कई मिट जाते हैं । जो स्थायित्व पाते हैं उनको शनैःशनैः विश्वास मिलता जाता है और कुछ ही समय के व्यवधान में वे दृढ़ बन जाते हैं । यह नये सम्प्रदाय या नये विचार के प्रादुर्भाव की कहानी है। जैन धर्म संघ भी इसका अपवाद नहीं है । भगवान् महावीर के समय में आज की सारी सापेक्षताएं थीं, विचार थे, नयवाद के आधार पर उनका समाधान भी था, परन्तु संघ अविकल था । न श्वेताम्बर - दिगम्बर का झमेला था और न अन्यान्य शाखा प्रशाखाओं का। संघ अखण्ड था। संघ में प्रभावशाली नेतृत्व के अभाव में पृथक्त्व के बीज बोए, मिथ्याभिनिवेश या व्यक्ति- मोह से विचार-भेद पनपने लगे और धीरे-धीरे संघ की अखण्डता टूट गई। संघ अनेक इकाइयों में बंट गया। इतना होने पर भी आज की श्वेताम्बरीय शाखाओं में मूल पाठ भेद अत्यन्त अल्प है । उनमें मतभेद है तो केवल अर्थ की परम्परा दुरूह होती है, वह मिट नहीं सकती और यदि मिटती है तो जड़ता पैदा करती
। हमारा विचार है कि अर्थ-भेद के रहते हुए भी पाठ-भेद की परम्परा को मिटाया जा सकता है। इसी भावना को मूर्त रूप देने के लिए आचार्यश्री ने दो वर्ष पूर्व जैन विद्वानों को आह्वान किया था कि वे श्वेताम्बरीय आगम-पाठनिर्धारण के विषय में कुछ कार्यक्रम प्रस्तुत करें ताकि शताब्दियों से चली आ रही पाठ-भेद की परम्परा एक बार समाप्त हो जाए। इस कार्य से जैन आगम की एकरूपता हो सकेगी जिससे कि रिसर्च स्कॉलर उस पर निश्चिन्तता से कार्य कर सकें। एकरूपता से स्थायित्व आता है और स्थायित्व से विश्वास पनपता
है ।
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कार्य गतिमान है । उत्तराध्ययन पाठ - निर्धारण का कार्य चालू है और संभव है कि वह इसी मास के अन्त तक पूरा हो जाए । पाठ-निर्धारण की जटिलताएं कम नहीं हैं परन्तु यह आगम-कार्य का प्रथम और अत्यावश्यक सोपान है। इसकी उपेक्षा कर कोई भी विद्वान् इस क्षेत्र में कार्य नहीं कर सकता । आचार्यश्री की सतत प्रेरणा तथा समय-समय पर मिलने वाले मार्गदर्शन