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आगम- सम्पादन की यात्रा
गोठी मुख्य थे। श्रीचंदजी प्रारंभ से ही इसमें संलग्न थे । उन्होंने कुछेक व्यावहारिक कठिनाइयों के बावजूद भी इस कार्य की सम्पन्नता में मनोयोग से कार्य किया है।
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आगम कार्य स्थिति - सापेक्ष है - इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता । परन्तु यात्रा के अंतराल में ही इस कार्य की उद्भावना हुई थी और संभवतः इसीलिए यह यात्राओं में ही चलना चाहता था । यात्राओं में जो कार्य चला वह पूर्णतः आशातीत था । लम्बे-लम्बे विहार, ग्रीष्म ऋतु की भयंकर गर्मी, सतत चलना आदि-आदि क्रियाओं में भी आगम-कार्य की अखण्ड आराधना मनोयोग और कर्तव्य निष्ठा की परिचायिका थी । यथेष्ट साधन-सामग्री का अभाव सदा ही बना रहता, परन्तु जहां हम एक स्थान में रहते वह अभाव मिट-सा जाता ।
कार्य गतिशील रहे यह सभी चाहते हैं, किन्तु गतिशीलता के हेतुओं को सभी नहीं समझते और जो समझते हैं वे उनकी कभी-कभी उपेक्षा भी कर बैठते हैं। यही कारण है कि कार्य में कुछ शैथिल्य आया है । अनावश्यक विलम्ब के अनावश्यक हेतु यदि न मिटेंगे तो कार्य आगे नहीं बढ़ पाएगा ।
इस प्रकार यह कार्य अनेक अपेक्षाओं को लिए चल रहा है । वाचनाप्रमुख आचार्यश्री तुलसी का सतत प्रयत्न, प्रधान निर्देशक मुनिश्री नथमलजी का अविकल योग तथा साधु-साध्वियों का निरीह श्रम निश्चित ही सुन्दर फल ला पाएगा ।
१५. आगम - कार्य की दिशा में
लगभग एक वर्ष पूर्व आचार्यश्री तुलसी ने वैभार गिरि की अधित्यका में चतुर्विध संघ के समक्ष यह घोषणा की थी कि आगामी पांच वर्षों में आगम पाठों का स्थिरीकरण करना है । उस समय राजगृह में समागत जैन विद्वानों ने इस घोषणा का हार्दिक स्वागत किया था । कई विद्वानों से विचार-विमर्श भी हुआ और इस कार्य की प्रारंभिक रूपरेखा बनाई गई । आचार्यश्री कलकत्ता पधारे । आठ मास की अविकल व्यस्तता से कार्य गतिशील नहीं बन सका । वहां से दो हजार मील की यात्रा कर आचार्यश्री राजनगर पधारे । तेरापंथ द्विशताब्दी के महत्त्वपूर्ण कार्यों में आपको अधिक समय लगाना पड़ा। पाठ