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आगम-कार्य की दिशा में
संशोधन का कार्य गतिमान नहीं बन सका । द्विशताब्दी महोत्सव के दो चरण सानन्द सम्पन्न हुए। आचार्यश्री की कार्य - व्यस्तता उतनी नहीं रही । यात्रा भी हल्की हो गई। अतः आचार्यश्री ने पुनः उस कार्य को गति देने के लिए तीनचार मुनियों को पाठ - संशोधन के कार्य में लगा दिया। मुनिश्री सुमेरमलजी 'सुदर्शन', मुनिश्री मधुकरजी तथा मुनिश्री हीरालालजी इस कार्य में अहर्निश संलग्न रहने लगे। उनके प्राचीन आदर्शों को सामने रख वे टीका - चूर्णि आदि से आगम-पाठों का मिलान करते और मुनिश्री नथमलजी से विचार-विमर्श कर मूल-पाठ और पाठान्तर आदि का निर्धारण कर लेते और अन्तिम निर्णय आचार्यश्री पर छोड़ दिया जाता। पाठ-निर्धारण का कार्य कुछ सरल-सा प्रतीत होता है, परन्तु वह वैसा नहीं है । आज जितने भी प्राचीन आदर्श हैं उनमें प्रायः उ-भेद मिलता है । इसके कई कारण हैं- प्राचीन आदर्शों को लिखते समय लेखकों के सामने जो प्रति रही, उसी के अनुसार उन्होंने प्रतिलिपि कर ली । लिखते-लिखते प्रमादवश या लिपि को पूरा न समझ सकने के कारण अक्षरों का व्यत्यय भी हुआ । कहीं-कहीं दृष्टि-दोष के कारण पद्य छूट गए या स्थानान्तर भी हो गए। यह उन लिपिकर्ताओं के विषय में है, जो केवल लिपिकर्ता ही थे, पाठ के विमर्शक नहीं ।
पाठ
जो व्यक्ति लिपि करने के साथ-साथ पाठ के पौर्वापर्य पर भी ध्यान नहीं देते, वे मूलार्थ को न समझ सकने के कारण तथा विपरीत समझने के कारण पाठ में संशोधन कर देते । यह कोई दुर्बुद्धि से नहीं होता, सहजतया किया जाता; परन्तु इससे पाठों में अत्यधिक विपर्यय हो गया । उन्होंने अपनी विचारसामग्री को प्रधानता देकर तथा अपने चिन्तन की प्रौढ़ता पर अत्यधिक विश्वास कर नये पद्य अन्दर समाविष्ट किये या मूल पद्यों में ही परिवर्तन ला दिया। आज भी ऐसा ही होता है। जहां-जहां संशोधन होता है वहां वह संशोधित प्रति भी कालान्तर में नये संशोधकों के लिए पाठान्तर की कड़ी वाली एक प्रति बन जाती है । प्रत्येक विद्वान् अपनी-अपनी साधन-सामग्री से संशोधन करता है । इसका अर्थ यह नहीं कि वह सबके लिए अंतिम है । परन्तु हां, उस विशेष संशोधक के लिए उस समय तक वह अंतिम हो सकती है । नये-नये संशोधक अपनी-अपनी प्रचुर साधन सामग्री से कालान्तर में उस विषय पर और भी विशेष प्रकाश डाल सके । संशोधन का कार्य नये संशोधकों के लिए नये-नये द्वार उपस्थित करता है, नये-नये विराम-स्थल प्रस्तुत करता