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आगम के कुछ विमर्शनीय शब्द
सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव जेयं न पस्सई।
जुज्झंतं दढधम्मा(ना?)णं, सिसुपालो व महारहं ।। चूर्णिकार की व्याख्या के अनुसार लगता है कि उनके सामने 'दढधन्नाणं' (सं. दृढ़धन्वानम्) पाठ रहा है। क्योंकि उन्होंने इसका अर्थ 'दृढ़ धनुष्य वाला' किया है-'दृढं' धनुर्यस्य स भवति दृढ़धन्वा तम्।'
लिपि-दोष या अन्य किसी कारण से टीकाकाल में 'दढधम्माणं' हो गया। प्रसंग शिशुपाल का है और यह एक विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। टीकाकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-दृढः-समर्थो धर्मः-स्वभावः संग्रामाभंगरूपो यस्य स तथा तम्' संग्राम में अविचलित स्वभाववाला।
प्रसंग और पौर्वापर्य की दृष्टि से चूर्णिकार का स्वीकृत पाठ उचित लगता
इस श्लोक का दूसरा विमर्शनीय शब्द ‘महारह' है। टीकाकार ने इसका अर्थ-महान् रथोऽस्येति महारथः-'महान् रथ वाला' किया है। चूर्णिकार ने 'महारह' का अर्थ-मेधारथ केसव किया है-मघारथो केसवो।
'महारह' शब्द का सामान्यतः प्रचलित अर्थ महान् रथ वाला होता है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में यह सामान्य अर्थवाची न रहकर विशेष अर्थ का द्योतक होना चाहिए। यहां मुख्यरूप से 'शिशुपाल' का प्रसंग प्राप्त है और उसमें उसके प्रतिपक्षी के रूप में 'महारथ' से कृष्ण का अर्थ ग्रहण होना चाहिए। इस प्रसंग में पूरे चरण का अर्थ यों होगा जब तक शिशुपाल दृढ धनुषधारी, युद्ध करते हुए कृष्ण को नहीं देख लेता........।
__पंडित बेचरदासजी ने 'महारह' शब्द की मीमांसा श्रीरत्नमुनि स्मृति ग्रंथ (पृ. १०१-१०२) पर की है और उसे 'कृष्ण' का वाचक माना है और उसके समर्थन में शिशुपाल वध (३।२२) तथा मल्लिनाथ की टीका की ओर भी संकेत किया है।
परन्तु उन्होंने चूर्णि का कोई संकेत नहीं दिया। यद्यपि चूर्णिकार ने 'महारथ' से केसव अर्थ ग्रहण किया है। परन्तु महारथ का अर्थ केसव कैसे होता है? इसका कोई समाधान प्राप्त नहीं है। यद्यपि मूल पाठ को (मघारह) मानें तो भी मघा का अर्थ 'महामेघ' होता है और महामेघ रथ है जिसका वह मघारथ होता है अर्थात् 'इन्द्र'। कृष्ण के पर्यायवाची नामों का उल्लेख करते