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प्राकृत भाषा और आगम-सम्पादन पर डॉ. उपाध्ये के विचार बद्ध होती थी, अतः प्रत्येक विद्वान उसी सोमा में रहकर भाषा का प्रयोग करता था। वैसी भाषा केवल विद्वयोग्य ही रहती थी, जन-मानस से उसका सम्पर्क नहीं-सा रहता था।
___ एक विद्वान् जब दूसरे विद्वान् से खास विषय की चर्चा करता, तब उसकी भाषा दूसरी होती थी और जब वह एक सामान्य व्यक्ति से बोलता तब भाषा के प्रयोग बदल जाते थे।
साधारण वर्ग की बोल-चाल की भाषा अनिश्चित होती थी। व्याकरण के नियम उसे बांध नहीं सकते थे। लोग मनमाने प्रयोग करते और वे प्रचलित हो जाते थे। परस्पर समझाव ही भाषा का ध्येय था। संस्कृत भाषा
मेरा यह कथन कटु हो सकता है, परन्तु सत्य से परे नहीं कि पाणिनि, पतंजलि और कात्यायन-इन तीनों ने संस्कृत भाषा की एक तरह से हत्या ही कर दी। इन्होंने इस भाषा के लिए एक आदर्श व सुदृढ़ ढांचा तैयार कर दिया। व्याकरणबद्ध भाषा की स्थिति मृतवत् हो जाती है। संस्कृत भाषा कभी भी जनभाषा नहीं रही है। इसका मूल कारण भी उसकी व्याकरणबद्धता है। यह केवल विद्वद्वर्ग की भाषा थी। वे जब आपस में चर्चा करते तब इस भाषा का प्रयोग करते थे और जब वे जन-साधारण से मिलते तो जन-सामान्य की भाषा में बोलते थे। एक बात और है कि जन-सामान्य को संस्कृत भाषा पढ़ने का अधिकार नहीं था। यह भाषा संकुचित और कुछ एक लोगों की भाषा मात्र बन कर रह गई। आज उसके अध्ययन-अध्यापन के लिए कॉलेज खुले हैं, अतः जन-साधारण की पहुंच भी वहां तक हो सकी है। प्राकृत भाषा
प्राकृत जीवन्त भाषा थी, क्योंकि वह जन-भाषा थी। राज्य-सत्ता के परिवर्तन के साथ-साथ भाषा का परिवर्तन भी होता है।
जब गणराज्यों का विकास हुआ, तब जन-सामान्य की भाषाओं का भी विकास हआ। प्राकृत भाषा जन-भाषा रही है। भगवान महावीर के समय जो गणराज्य थे, वहां के जन-सामान्य की भाषा प्राकृत थी। पाली भाषा भी एक प्राकृत ही है।