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वैभार पर्वत : आचार्य तुलसी का संकल्प
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१३. वैभार पर्वत : आचार्य तुलसी का संकल्प
जैन- दर्शन के जर्मन विद्वान् डॉ. रोथ 'भगवान मल्लिनाथ' पर थीसिस लिख रहे थे। इसी प्रसंग में कुछेक जिज्ञासाओं को लेकर वे आचार्यश्री तुलसी के पास आए। उन दिनों आचार्यश्री सरदारशहर में थे । आगमम-कार्य चल रहा था। प्रश्नों का क्रम चला। साथ-साथ समाधान भी मिलता गया । उनकी कार्य-निष्ठा और कार्य के प्रति एकाभिमुखता प्रेरणाप्रद थी ।
आचार्यश्री के कुशल निर्देशन में चल रहे 'आगम-शोधन' कार्य की उन्हें जानकारी दी गई। उन्होंने कार्य देखने की इच्छा व्यक्त की ।
आगम-कार्य में जुटे हुए कतिपय साधु एक कमरे में कार्य - संलग्न थे । मुनिश्री नथमलजी सभी का यथोचित मार्गदर्शन कर रहे थे। डॉ. रोथ वहां आए। उन्होंने कार्य को देखकर प्रसन्नता प्रकट की, अनेक सुझाव भी दिए। उनके हाथ में 'सुत्तागम' की एक प्रति थी । मुनिश्री नथमलजी ने कहा- यह पुस्तक कैसे ले रखी है ? यह तो अशुद्धि - बहुल है ।
उन्होंने कहा-' - मुनिजी ! यह मैं जानता हूं कि यह त्रुटियों से भरी पड़ी है। परन्तु एक ही स्थान में आगमों का मूल पाठ एकत्र मिलता तो है, अन्यत्र वह भी दुर्लभ है। इसी से संतोष मान रखा है।' हमने उनकी भावना को ताड़ते हुए उनके विचार का समर्थन किया ।
आचार्यश्री के मन में पाठ-संशोधन की भावना प्रज्वलित थी। डॉ. रोथ के विचारों ने उस भावना को और उभारा। अति व्यस्त रहते हुए भी आचार्यश्री ने दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, बृहत्कल्प, निशीथ, अनुयोगद्वार आदि छह सूत्रों का पाठ संशोधित किया । पाठ-संशोधन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जितनी हस्तलिखित प्रतियां थी उतने ही पाठान्तरों को देखकर पाठ-निर्धारण का कार्य दुरूह-सा प्रतीत होने लगा । परन्तु आचार्यश्री की बहुश्रुतता से पग-पग पर प्रकाश की रेखाएं प्रस्फुटित होती दीखीं । ज्योंत्यों अन्वेषणपूर्ण पाठ - निर्धारण का कार्य सम्पन्न हुआ।
सभी आगमों के पाठ - संशोधन के विचार आते रहे, परन्तु अर्थ-निश्चय और पौर्वापर्य की निश्चिति के बिना पाठ - निर्धारण का कार्य सुगम प्रतीत नहीं हुआ। विचार-मंथन चलता रहा। दशवैकालिक सूत्र के कार्य-काल में यह विचार सुदृढ़ हो गया कि अनुवाद के कुछ पूर्व ही पाठ का निर्धारण किया जाना चाहिए ।