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वैभार पर्वत : आचार्य तुलसी का संकल्प
___आचार्यश्री के सामने मुख्यतः दो कार्य हैं-आगम-कार्य और अणुव्रतप्रचार । एक स्थिति-सापेक्ष है, एक गति-सापेक्ष । एक अल्प व्यक्ति सापेक्ष है, एक समूह सापेक्ष। __आचार्यश्री में विलक्षणता है। वे दोनों को साथ लिए चलते हैं। परन्तु दोनों में कुछ-कुछ बाधाएं आती हैं। परन्तु आचार्यश्री की सतत प्रेरणा और संतों की कार्य-निष्ठा से पर्याप्त कार्य होता है, फिर भी इस कार्य को गति देने के लिए एक स्थान पर अवस्थिति की अपेक्षा रह जाती है। इस पर सोचा भी जाता है।
कई साधु और श्रावकों की इस कार्य के प्रति रुचि बढ़ी है और वे कार्य करना चाहते हैं। यह अच्छा है। यदि सभी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार कार्य को बांट लेते हैं तो कार्य सम्पन्न होने में कोई बाधा नहीं आती। आगमकार्य श्रद्धा, सातत्य और दीर्घकालिता सापेक्ष है। इस कार्य से व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति होती है, परन्तु वह कार्यानुषंगिक है। केवल महत्त्वाकांक्षाओं के पोषण के लिए जो इस कार्य में प्रविष्ट होते हैं वे कभी सफल नहीं हो सकते। आगम के कार्य-काल में हमने देखा है कि किस प्रकार पाठ और अर्थ की निश्चिति में आचार्यश्री को चिन्तन और मननशील रहना पड़ता है। इस कार्य को सहज व सरल समझना अविचारकता है।
पाठ-निर्धारण की इयत्ता यह है कि प्राचीनतम प्रतियों से पाठ मिलाया जाए और आगम के पौर्वापर्य की संगति करते हए किसी एक निश्चय पर पहंचा जाए। तदनन्तर विशेष विमर्श और चिन्तन के द्वारा पाठ का निर्धारण किया जाए। इसका यह मतलब नहीं कि जो पाठ हमने निश्चित कर लिया वह अंतिम ही होगा। परन्तु आगे के विद्वानों के लिए भी विचार करने का क्षेत्र सदा खुला रहा है और रहेगा। भविष्य में तत्संबंधी जो विशिष्ट विचार आएंगे उन पर यथासंभव विचार किया जा सकेगा और अन्यान्य संस्करणों में उन्हें स्थान दिया जा सकेगा। __ प्रचलित जैन सम्प्रदायों में पाठ-विषयक विशेष मतभेद नहीं है। मतभेद केवल अर्थ-निश्चय में है। ऐसी स्थिति में अन्वेषणपूर्ण प्रस्तुत किए जाने वाले पाठों का सभी सम्प्रदाय वाले स्वागत करेंगे और अपनाएंगे, ऐसी आशा है।