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आगम- सम्पादन की यात्रा
राजगृह में 'जैन संस्कृति समारोह' का विशद आयोजन था। अनेक जैन विद्वान् और जैन-दर्शन में रस लेने वाले जैनेतर विद्वान् उपस्थित थे । जैन समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की उपस्थिति भी अपर्याप्त नहीं थी । पूना से एन. वी.
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आए हुए थे । 'आगम-संशोधन' के विचार-विमर्श के लिए विद्वानों की एक गोष्ठी आचार्यश्री के सान्निध्य में रखी गई। प्रो. वैद्य ने इसमें पूर्ण रस लिया । उन्होंने आचार्यश्री से निवेदन किया- 'जैनागमों के कार्य के प्रति जैन लोगों की उपेक्षा को देख मैं हताश हो गया था । इसका मुख्य कारण था साहित्य का अभाव । सत्प्रयत्नों से पूना के कॉलेज में जैन दर्शन का कक्ष खोला गया । अधिकारी व्यक्तियों ने आगम - साहित्य मांगा। ज्यों-त्यों मैंने एक-दो पुस्तकें पाठ्यक्रम के लिए दीं। परन्तु मांग चालू रही। मैंने बहुत प्रयास किया, परन्तु उनकी मांग पूरी नहीं कर सका। आपकी कार्यशीलता को देखकर पुनः मेरे मन में आशा की एक लहर दौड़ गई है। आपके कुशल निर्देशन और अनुपम संगठन से मुझे यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती कि यह कार्य आप जैसे मनीषी और चिन्तकों द्वारा पूर्ण सम्पन्न होकर रहेगा। यह कार्य आपने उठाया है - यही इस कार्य की सुसम्पन्नता का परिचायक है । आगम-अनुवाद आदि कार्यों से पूर्व मूल पाठ - - निर्धारण का कार्य होना चाहिए - ऐसी मेरी नम्र प्रार्थना है। इस कार्य के लिए मैं अपने आपको प्रस्तुत करता हूं और अन्यान्य विद्वानों को भी जुटाने का वादा करता हूं। अभी अवकाश - ग्रहण करने में मेरे नौ वर्ष शेष हैं। यदि इस अवधि से पूर्व मैं अपने विद्यार्थियों को मूल आगमपाठ का सुसम्पादित भाग दे सका तो मैं अपने भाग्य को सराहे बिना नहीं रहूंगा। अभिनव सम्पर्क से मैं विश्वस्त हो गया हूं कि यह कार्य शीघ्र हो जाएगा।' प्रोफेसर महोदय की भावनाओं में उत्साह था, कार्य करने की तन्मयता थी ।
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वैभार पर्वत के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने आचार्यप्रवर ऊपर गए । 'सप्तपर्णी' गुफाओं के सामने चतुर्विध संघ की उपस्थिति भगवान् महावीर के 'समवसरण' की याद दिला रही थी। सबका दिल उमंगों से भरा था । आचार्यश्री ने मधुर वाणी में देशना दी। संघ - चतुष्टय ने भी अपनी-अपनी भावनाएं रखीं। आचार्यश्री ने वातावरण में विशेष चैतन्य उंड़ेलते हुए एक प्रतिज्ञा की कि 'आगामी पांच वर्षों में 'मूल पाठ' का सम्पादन करना है।' प्रतिज्ञा की प्रतिध्वनि से सारा वैभार गूंज उठा।