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आगम- सम्पादन की यात्रा
१२. आगम - कार्य पर डॉ. रोथ के विचार
सचमुच डॉ. रोथ ने ठीक ही कहा था कि जिस प्रकार से आपकी शास्त्र - सम्पादन की योजना चल रही है उसके अनुसार आपको इस कार्य में पचास वर्ष लग जायेंगे। उस समय हमें इस गुरुता का बोध नहीं था । पर ज्योंज्यों शास्त्र-सागर में उतरने का अवसर मिला कि उसकी गहराई विज्ञात होती चली गई। अब पचास वर्ष की अवधि बहुत लम्बी नहीं लगती । एक दशवैकालिक सूत्र ने ही इतना समय ले लिया, जिसे कल्पनाक्रांत ही कहा जा सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र का कार्य यों तो प्रायः सम्पन्न हो चुका है, पर ज्यों-ज्यों नई चीजें मिलती जा रही हैं त्यों-त्यों वह और अधिक लम्बा होता चला जा रहा है। साथ ही साथ स्थानांग, समवायांग, उपासकदशा तथा पांचों निरयावलिकाओं का भी अनुवाद हो चुका है । उनके कुछ-कुछ टिप्पण भी लिखे जा चुके हैं।
पाठ-संशोधन की दृष्टि से दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी, अनुयोगद्वार, सूत्रकृतांग, समवायांग, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिक, विपाक, औपपातिक, राजप्रश्नीय तथा पांच निरयावलिकाओं–कुल अट्ठारह सूत्रों का पाठ - संशोधन भी हो चुका है । पाठसंशोधन का कार्य भी कम जटिल नहीं है । इसीलिए पाठ - संशोधन के लिए पांच वर्षों की अवधि का प्रतिबंध अब संभव नहीं है ।
यद्यपि शास्त्र-कार्य में समय तो कल्पना से कुछ अधिक ही लग रहा है, पर यह कह देना भी शायद अनुपयुक्त नहीं होगा कि कार्य भी कल्पना से कुछ अधिक ही हो रहा है। हमारे कार्य के प्रति हमारा तो गुरु-दृष्टिकोण रहना सहज ही है, पर इस बार वैशाली जैन प्राकृत विद्यापीठ के डायरेक्टर डॉ. नथमलजी टांटिया ने भी जब इस कार्य को देखा तो वे गद्गद हो गए। उन्होंने कहा——यह अपने ढंग का एक अद्वितीय प्रयास है । दूर बैठे हम लोग इस कार्य की कल्पना भी नहीं कर सकते थे । पर जब प्रत्यक्ष इस कार्य को देखा तो पता चला - हम लोग लाखों रुपये व्यय करके भी इतना सुन्दर सम्पादन नहीं कर सकते । हमारा बहुत बड़ा सौभाग्य होगा कि सारे शास्त्र हमारे विद्यापीठ की ओर से प्रकाशित हों। अभी तो हम आचार्यश्री तथा श्रमणसंघ से यही प्रार्थना करते हैं कि हमें कम से कम दशवैकालिक के प्रकाशन का तो अवसर अवश्य दें ।