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आगम-सम्पादन की यात्रा
प्राकृत भाषा जब ग्रंथित हुई तब उसकी भी वही स्थिति हुई जो संस्कृत की हुई थी। वह भी मृत-सी हो गई, किन्तु उसमें से अन्य भाषाओं का विकास होता रहा। क्योंकि वह जनभाषा रही। अतः उसका स्रोत रुका नहीं।
जैन आचार्यों ने प्राकृत के विकास में बहुत योग दिया है। उन्होंने भाषा का कभी अभिमान नहीं किया। वे सदा लोक-भाषा में बोलते और उसी में लिखते। वे जहां जाते वहीं की भाषा सीख लेते थे। इसी कारण तमिल, कन्नड़ में ही विपुल जैन-साहित्य मिलता है।
ईसवी सन् की चौथी शताब्दी तक के जितने शिलालेख प्राप्त होते हैं, वे प्रायः प्राकृत भाषा में हैं। गुप्तकाल से संस्कृत में शिलालेख प्राप्त होते हैं।
आज भी जैन भंडारों में जितने जैनेतर ग्रंथ प्राप्त होते हैं, उतने जैन-ग्रंथ जैनेतर भंडारों में प्राप्त नहीं होते। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जैन आचार्य समन्वय की दृष्टि को लेकर चले थे और उनकी अभ्यास की दृष्टि भी विशाल थी।
आज बौद्ध-साहित्य पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। बौद्ध-ग्रंथों का अभ्यास पाश्चात्य विद्वानों ने पहले से प्रारंभ कर दिया था और जब वह धर्म भारत से बाहर अनेक देशों में व्याप्त हुआ तब विभिन्न भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ और स्थानीय विद्वान् उनके प्रति आकृष्ट हुए।
जैन धर्म भारत में उत्पन्न हुआ और मुख्यतः उसी में फला-फूला। प्राकृत जन-भाषा थी। जैनागम उसी में लिखे गए।
समाज में जो विशिष्ट आचार्य हए, उन्होंने आगमों का अभ्यास किया। उसमें शीलांकसूरि, अभयदेव, मलयगिरि आदि मुख्य हुए हैं। पाश्चात्य विद्वानों में यह कम प्रचलित रहा। फिर भी वेबर, लॉयमान, पिशेल, याकोबी, शारपेण्टियर आदि पाश्चात्य विद्वानों ने आगमों पर बहुत कुछ लिखा है। ____ पाश्चात्य विद्वान् आगमिक ग्रंथों का अध्ययन दो दृष्टियों से करते थे-भाषा की दृष्टि से तथा सांस्कृतिक दृष्टि से। किन्तु भारतीय लोगों में इन दृष्टियों का कम विकास हुआ। वे केवल उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से पढ़ते थे।
आज शासन में चौदह भाषाओं को मान्य किया गया है। मेरी अपनी मान्यता है कि उनमें से कइयों का विकास प्राकृत और अपभ्रंश के आधार पर हुआ है। अपभ्रंश को पढ़ने पर गुजराती, पजाबी, महाराष्ट्री आदि भाषाओं में