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आगम-सम्पादन की यात्रा
११. प्राकृत भाषा और आगम-संपादन पर डॉ. उपाध्ये के विचार
आचार्यश्री तुलसी जयसिंगपुर से हुबली जाते हुए दिनांक २६ मार्च ६८ को कोल्हापुर पधारे। प्रातःकाल नागरिक अभिनन्दन हुआ। मध्याह्न में अनेक व्यक्ति सम्पर्क में आए और वैयक्तिक, सामाजिक और धार्मिक प्रश्नों का समाधान पा बहुत संतुष्ट हुए। आगन्तुकों का तांता-सा लग गया, अतः आचार्यश्री उनमें व्यस्त थे।
__मध्याह्न के लगभग तीन बजे डॉ. ए. एन. उपाध्ये वहां आए। साधुसाध्वियों की गोष्ठी में उन्हें भाषण देने के लिए कहा गया। मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) के सान्निध्य में साधु-साध्वी एकत्रित हुए और गोष्ठी प्रारंभ हुई। डॉ. उपाध्ये ने कहा
'आज मैं आपके समक्ष 'प्राकृत भाषा और आगम सम्पादन' के विषय में कुछ विचार व्यक्त करूंगा। मैं कर्नाटक में जन्मा और मेरी शिक्षा-दीक्षा उसी प्रदेश में हुई। मेरी मातृभाषा भी कन्नड़ रही है और पढ़ना-पढ़ाना अंग्रेजी में चलता रहा है। इसलिए हिन्दी बोलने में कुछ भूलें हो सकती हैं, किन्तु भावों की शृंखला नहीं टूटेगी।
मैं जीवनभर प्राकृत भाषा का अभ्यासी रहा हूं और उस भाषा के संबंध में बहुत बारीकी से जानने की इच्छा सदा बनी रही है। मैंने उभरती हई जिज्ञासाओं को समाहित करने का यथाशक्य प्रयास भी किया है। परन्तु आज भी मैं इस स्थिति में नहीं हैं कि यह कह सकूँ कि भाषा का सांगोपांग अध्ययन कर लिया है। इस भाषा में मुझे अध्यापन कराने का अवसर मिलता रहा है, अतः उसके मूल तक पहंचने का प्रयास भी होता रहा है।
प्राकृत भाषा का अभ्यास कैसे किया जाए तथा उसकी समृद्धि के क्या क्या हेतु हो सकते हैं-इन प्रश्नों के संदर्भ में जो अनुभव मिला, वह मैं आपके समक्ष रख रहा हूं।
प्रत्येक काल में दो वर्ग अवश्य रहे हैं१. विद्वद्वर्ग २. साधारण वर्ग विद्वद्वर्ग सदा परिष्कृत भाषा में लेखन करते थे। उनकी भाषा नियमों से