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प्राकृत भाषा और आगम- सम्पादन पर डॉ. उपाध्ये के विचार
विशेष अन्तर मालूम नहीं पड़ता ।
प्राकृत भाषा में अनेक ग्रंथों का निर्माण हुआ । इस भाषा के प्रयोग इतने प्रचलित थे कि अन्यान्य ग्रंथकारों ने भी इन्हें वैसे ही अपना लिया । ज्ञानेश्वरी में प्राकृत तथा अपभ्रंश के अनेक प्रयोग मिलते हैं । प्राचीन नाटकों में एक तिहाई भाग प्राकृत में रहता था । जैनेतर विद्वानों ने भी कई प्राकृत-ग्रंथ लिखे हैं। जैसे उत्तर में वैसे दक्षिण में भी वे लिखे गए हैं ।
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आगम- सम्पादन
यह
पाठ - सम्पादन के लिए कई नियम अपेक्षित माने जाते हैं। लॉयमान्, याकोबी तथा शुब्रिंग आदि विद्वानों ने अपने सम्पादित ग्रंथों में कुछ एक मानदण्डों का उल्लेख किया है, किन्तु मुझे लगता है कि उनमें भी कई परिवर्तन अपेक्षित हैं। आधुनिक व्याकरण के नियमों के अनुसार पाठ-सम्पादित हो, मुझे इष्ट नहीं है । आज के जैन विद्वानों पर हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के संस्कार का प्रभाव है । आचार्य हेमचन्द्र ने व्यापक दृष्टि से व्याकरण की रचना की थी। उनके व्याकरण में जैन आगमों के बहुत कम उदाहरण प्राप्त होते हैं। बहुत सारे उदाहरण अन्यान्य ग्रंथों से लिए गए हैं। इससे यह निष्कर्ष स्वतः निष्पन्न होता है कि उन्होंने आगमिक आधार पर व्याकरण की रचना नहीं की थी, उनका दृष्टिकोण व्यापक था । पाठ-निर्धारण में प्राचीन प्रतियों का आधार लिया जाना चाहिए, न कि हेम-व्याकरण का । यह प्रणाली कष्ट साध्य अवश्य है, परन्तु है सुरक्षित और अपेक्षणीय ।
आज भी जैन आगम ग्रंथों की प्राचीनतम प्रतियां जैसलमेर, पाटण आदि भंडारों में उपलब्ध होती हैं । किन्तु वर्तमान में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि प्राचीन प्रतियों को पढ़ने वाले तथा उनकी प्रतिलिपि करने वाले बहुत कम व्यक्ति रह गए हैं। श्रमण वर्ग यह कर सकता है । आगम का प्रामाणिक ग्रंथसम्पादन अत्यंत श्रमसाध्य है ।
मैंने संक्षेप में अपने विचार व्यक्त किए हैं। आप सब प्राकृत आदि भाषाओं के अभ्यासी हैं और उनमें पढ़ते लिखते हैं। अब इन भाषाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से भी होना चाहिए ।
आपने मुझे प्रेमपूर्वक सुना, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं ।