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आगम- सम्पादन की यात्रा
हुए कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य अभिधानचिन्तामणि कोष ( २ । १२८) में 'इन्द्रानुजः' 'उपेन्द्रः' आदि शब्द तो देते हैं किन्तु इन्द्र या मघारथ नहीं ।
यदि हम 'महारह' का एक विशेषणमात्र मानकर चलें तो भी एक दूसरी विधि से हमें समाधान मिल जाता है ।
कृष्ण का एक नाम 'सुधन्वा'" भी है। 'सुधन्वा' और 'दृढधन्वा' शब्द के निरुक्त में अन्तर हो सकता है, किन्तु मूल तात्पर्यार्थ में कोई अन्तर नहीं हो सकता । अतः हम 'दृढधन्वा' कृष्ण का वाचक मानकर 'जुज्झतं' तथा 'महारह' को विशेषण मानें तो भी कोई आपत्ति नहीं आती।
१०. दक्षिण यात्रा और आगम - सम्पादन
वि. सं. २०२३ का मर्यादा - महोत्सव बीदासर में था । विभिन्न प्रान्तों के हजारों नर-नारी उपस्थित थे । सुदूर दक्षिण प्रान्त के भाई - बहन भी 'दक्षिण' की प्रार्थना लेकर पहुंच गए थे । आचार्यश्री ने उनकी प्रार्थना सुनी। दूसरे दूसरे प्रान्तों के लोगों ने भी दक्षिण-यात्रा का समर्थन किया। उस दिन सारा वातावरण दक्षिण- - यात्रामय हो रहा था । सब यही कह रहे थे- 'आचार्यश्री ने अपने आचार्य-काल में अनेक प्रान्तों में विचरण किया है। केवल दक्षिण भाग ही आचार्यश्री के चरण-स्पर्श से अछूता रहा है । अवस्था भी बढ़ रही है । अतः दक्षिण - यात्रा जितनी जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा है।' दक्षिणवासियों की प्रार्थना के शब्दों के साथ ये शब्द भी मिल गए । प्रार्थना बलवती हुई। आचार्यश्री ने दक्षिण-यात्रा की घोषणा कर दी । सारा वातावरण प्रफुल्लित हो
उठा ।
यात्रा के निर्णय के साथ-साथ आचार्यश्री ने कहा - 'यात्रा बहुत लम्बी है । जो साहित्य- कार्य हमने प्रारम्भ कर रखा है उसमें शैथिल्य न आए इसका भी हमें ध्यान रखना है। सभी साहित्यिक कार्यों में 'आगम सम्पादन' का कार्य प्रधान है। उसे हम सदा प्रधानता देते रहे हैं और आगे भी उस कार्य में तीव्रता आए, यह अपेक्षित है। मैं मानता हूं कि एक ओर सुदूर दक्षिण की यात्रा है और दूसरी ओर 'आगम- सम्पादन का बृहत्तर कार्य। दोनों की दो दिशाएं हैं। यात्रा
१. अभिधानचिन्तामणिकोश, शेषस्थ, पृ. ६२, ला. २७ ।