________________
आगम के कुछ विमर्शनीय शब्द
इसी प्रकार होना चाहिए । इसका अनुसंधान 'जाव' शब्द से किया गया है।
(२।२९) में 'रोयमाणे कंदमाणे' के आगे 'विलवमाणे' शब्द नहीं है । ( २ । ३४ ) में 'रोयमाणे जाव विलवमाणे' है। इसके आधार पर यहां भी 'विलवमाणे' पाठ चाहिए। क्योंकि यह 'जाव' शब्द के द्वारा अनुबद्ध है ।
२७
पाठ के निर्धारण में अर्थ - मीमांसा का भी बहुत बड़ा प्रयोजन है ।
१. प्रायः सभी प्रतियों में (२।१७ ) के अन्त का पाठ - 'समाणी जाव विहरित' है । अर्थ की दृष्टि से यहां 'विहरितए' पाठ समुचित नहीं लगता, क्योंकि यहां दोहद पूर्ति का प्रसंग है । अतः यहां 'दोहलं विणित्तए' पाठ चाहिए ।
२. (२।५१) में प्रायः प्रतियों में 'विजए धणेण सत्थवाहेण सद्धिं एगंते अवक्कमइ, उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ' ऐसा पाठ है । इसका अर्थ होता है - विजय धन सार्थवाह के साथ एकांत में गया और मलमूत्र का त्याग किया। हमने सोचा यहां पाठ में विपर्यय है । यहां इस आशय का पाठ होना चाहिए कि धन सार्थवाह को मल-मूत्र के त्याग की आवश्यकता होती है और वह विजय तस्कर के साथ बाहर जाता है । इस दृष्टि से यहां पाठ होगा - ' धणे सत्थवाहे विजएण तक्करेण सद्धिं एगंते अवक्कमइ, उच्चारपासवणं परिद्ववेइ ।' ताडपत्रीय आदि सभी प्रतियों में ऐसा पाठ नहीं मिला, परन्तु टब्बे की प्रति में यह पाठ उपलब्ध हुआ और हमने जो सोचा वह ठीक निकला।
तीसरे अध्याय के पांचवें सूत्र में 'पिट्ठपिंडी' पाठ कुछ प्रतियों में मिलता है। यहां इसके स्थान पर 'पिट्टंडी' पाठ चाहिए। मूल पाठ था- - 'पिट्ठउंडी' । वृत्तिकार ने उंडी का अर्थ पिंडी किया । यह वाक्यांश (पिंडी) मूल में संक्रान्त हो गया ।
इस प्रकार आगमों के अनेक स्थल ऐसे हैं जहां मूल के साथ व्याख्यांश जुड़ गया है। इसको पृथक् कर मूलपाठ का निर्धारण करना बहुत आवश्यक है ।
९. आगम के कुछ विमर्शनीय शब्द
मूल आगमों में ऐसे अनेक शब्द हैं जो विभिन्न दृष्टियों से विमर्शनीय हैं। मैं कुछ एक शब्दों का निर्देश तथा उसका यथासंभव समाधान प्रस्तुत कर रहा हूं ।