________________
२६
आगम-सम्पादन की यात्रा
इसी सूत्र के ज्ञाताधर्मकथा (३।५) में 'संचिट्ठमाणी विहरइ' पाठ है। वृत्ति में 'संविद्वेमाणी' मानकर व्याख्या की गई है। वास्तव में यही पाठ उचित लगता है, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र में मयूरी अंडों का प्रसव कर अपनी पांखों से उनको संवेष्टित (संविट्ठमाणी) कर बैठी है। यहां यही आशय यथार्थ लगता है। लिपि में 'व' और 'च' के लिखने में बहुत कम अंतर रहता है। अतः लिपिदोष के कारण 'व' के स्थान पर 'च' हो गया ऐसा लगता है। ____ इसी ज्ञाताधर्मकथा (२।६५) में धन अपनी पत्नी से कहता है-'मैं जो आहार का संविभाग दे रहा हूं वह धर्म या तप आदि मानकर नहीं, किन्तु शरीर-चिंता में सहयोग मिल सके, इसलिए दे रहा हूं।'
इस सूत्र में संविभाग किसको दिया, इसका उल्लेख नहीं है। इसी अध्याय के पचहत्तर- सूत्र में 'जाव विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ' यह पाठ है। उसकी पूर्ति प्रस्तुत सूत्र से ही होती है। इससे यह सहज अनुमान किया जा सकता है कि यहां 'विजयस्स तक्करस्स'-ऐसा पाठ होना ही चाहिए।
प्रस्तुत सूत्र के (२।११) में 'विजए नामं तक्करे होत्था पावचंडालरूवे.... गिद्धेव आमिसतल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी.....' ऐसा पाठ है। इसी अध्याय के तेतीसवें सूत्र में यह पाठ संक्षिप्त होकर-'तक्करे जाव गिद्धेव आमिसभक्खी'-ऐसा हो गया। प्रायः प्रतियों में ऐसा ही उल्लेख मिलता
'आमिसतल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी' के स्थान पर 'आमिसभक्खी' मात्र रह गया। इससे अर्थ भी स्पष्ट नहीं हो पाता। जब पूर्व पाठ के संदर्भ में इसको जांचा गया तब यह स्पष्ट हो गया कि यहां पाठ छूट गया है। यह संक्षेपीकरण ही त्रुटि है। संक्षेप में यह पाठ यदि ऐसा होता 'तक्करे जाव भक्खी' तो सारी समस्या हल हो जाती।
इस प्रकार पाठ-संशोधन में पुनरावृत्त होने वाले पाठों की सूक्ष्म जांच करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। अन्यथा पाठों की एकरूपता नहीं रह पाती और कहीं-कहीं अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है।
(२।३३) में 'लयापहारे य छिवापहारे य' यह पाठ सभी प्रतियों में इसी रूप से मिलता है। यही पाठ इसी सूत्र में आगे 'छिवापहारे य लयापहारे य' ऐसा है। अन्यत्र भी यह पाठ इसी रूप से आया है। अतः यहां (२।३३) भी यह