________________
आगमपाठ-शोधन : कुछ मीमांस्य स्थल
प्रमुख आचार्यश्री तुलसी हैं और सम्पादक तथा विवेचक मुनिश्री नथमलजी हैं। पाठ-सम्पादन में सहयोगी हैं–१. मुनि सुमेरमलजी 'सुदर्शन', २. मुनि मधुकरजी और ३. मुनि हीरालालजी। मुनि बालचंदजी भी कार्य में संलग्न हैं।
प्रस्तुत सूत्र के सम्पादन के लिए हमने चार प्राचीन आदर्श स्वीकृत किए हैं। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१. ताडपत्रीय प्रति-लगभग १३वीं शताब्दी। २. पंचपाठी-लगभग १५-१६वीं शताब्दी। ३. पंचपाठी लगभग १६वीं शताब्दी।
४. टब्बे की प्रति। लिपि के कारण पाठों में अन्तर
१. राजगृह का निवासी धन सार्थवाह का वर्णन ज्ञाताधर्मकथा के दूसरे अध्ययन में हुआ है। (२।७१) सूत्र में धन जब स्थविर भगवान् के दर्शन करने के लिए सोचता है, वहां प्रायः सभी प्रतियों में ऐसा पाठ है-'तं इच्छामि णं थेरे भगवंते वंदामि नमसामि........'। यहां 'इच्छामि' शब्द आलोच्य है। यहां 'इच्छामि' शब्द वाक्य-रचना की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। यदि 'इच्छामि' शब्द रखा जाए तो आगे का पाठ होगा.......भगवंते वंदिउं नमंसिउं। किन्तु ऐसा पाठ उपलब्ध नहीं है।
अन्य आगमों में भी इसी प्रकार के प्रकरण आए हैं और उनकी समीक्षा करने पर 'इच्छामि' के स्थान पर 'गच्छामि' पाठ उपयुक्त लगता है। 'गच्छामि' मान लेने पर आगे के पाठों में परिवर्तन अपेक्षित नहीं रहता। संभव है लिपिदोष के कारण 'गच्छामि' के स्थान पर 'इच्छामि' बन गया और वही पाठ उत्तरोत्तर आदर्शों में संक्रांत होता गया। ___ इसी के आगे ‘एवं संपेहेइ, संपेहित्ता' पाठ होना चाहिए। वह भी आदर्शों में नहीं मिलता। संभव है काल के व्यवधान से यह पाठ लिपिकर्ताओं ने छोड़ दिया। उपासकदशा सूत्र (१।२०) में यह पूरा पाठ उपलब्ध होता है। वह इस प्रकार है-'तं गच्छामि णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वंदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि-एवं संपेहेइ, संपेहित्ता बहाए........।