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आगमपाठ - शोधन : कुछ मीमांस्य स्थल
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तीन वर्षों में दक्षिण के चारों प्रान्त तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक तथा आंध्र की यात्राएं कर यहां की संस्कृति और जैन धर्म के प्राचीन अवशेषों का अध्ययन किया है। हमें ऐसा लगा कि एक समय दक्षिण भारत जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा था और उस धर्म ने यहां के सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित ही नहीं, उसका सुव्यवस्थित निर्माण भी किया था । किन्तु अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज इन दक्षिणी प्रान्तों में जैन धर्म का अस्तित्व नहीं के समान है । यत्र-तत्र कुछ हजार लोग रहते हैं, किन्तु उनका कोई उल्लेखनीय स्थान नहीं है ।
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हम यहां बहुत घूमे, किन्तु कहीं भी हमें श्वेताम्बरीय आगम देखने को नहीं मिले। यहां दिगम्बर ग्रंथों के अनेक भांडागार हैं। पर वे प्रायः उपेक्षित से पड़े हैं। स्थानीय लोग इतने समृद्ध नहीं हैं कि वे इनकी समुचित देख-रेख कर सकें। आवश्यकता है सभी जैन इस ओर ध्यान दें और दिगम्बर तथा श्वेताम्बर भेद-भाव को भुलाकर यहां कुछ कार्य करें ।
आगम-सम्पादन के अंतर्गत अब तक बारह ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं और विद्वानों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। आधुनिक सम्पादन की सारी विधाओं से समृद्ध इन आगमों का प्रकाशन जैन जगत् के लिए गौरव का विषय तो है ही, साथ - साथ अजैन विद्वानों के लिए भी शोध की अतुल सामग्री प्रस्तुत करता है ।
आगम-संपादन के अनेक अंग हैं । उनमें पाठ-संशोधन का प्रमुख स्थान है। जब तक पाठ का निर्धारण नहीं होता तब तक अनुवाद या टिप्पण का कार्य भी पूरा नहीं हो सकता । पाठ-सम्पादन की अनेक कठिनाइयां हैं। केवल प्राचीन आदर्शों के आधार पर पाठों का निर्धारण पूर्ण नहीं माना जा सकता। जितने आदर्श हैं, उतने ही पाठ-भेद हैं, अतः जो पाठ अनेक प्रतियों में समान रूप से मिलते हैं, उन्हें ही उचित मान लेना संगत नहीं लगता। क्योंकि प्राचीन आदर्शों में कहीं-कहीं मूल पाठ इतने अस्त-व्यस्त हो गए हैं कि उनका अर्थ-मीमांसा या पौर्वापर्य देखे बिना किसी एक निश्चय पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसलिए पाठ - सम्पादन के विषय में हमारा अभिमत है कि किसी एक ही आदर्श, व्याख्या या किसी भी विधा पर एकांगी रूप से निर्भर नहीं रहा जा सकता । सबके समवेत उपयोग से ही सत्य के निकट पहुंचा जा सकता है।