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आगम-सम्पादन की यात्रा पाठ-संपादन में उत्पन्न कठिनाइयों के दो कारण हैं१. लिपि-परिवर्तन और २. संक्षेपीकरण।
लिपि सदा एक सी नहीं रहती। समय-समय पर उसमें परिवर्तन होता रहता है। ब्राह्मी लिपि से चलकर आज हम देवनागरी तक पहुंच गए हैं। ताडपत्रीय पत्रों में जो लिपि है, वह कागजों पर लिखी लिपि से भिन्न है।
___ प्राचीन काल में 'व' 'घ' 'च' 'छ' 'थ' आदि अक्षरों में बहुत अन्तर था। सारे लिपिकार इस अन्तर को समझने वाले नहीं होते थे। अतः लिपि को न समझने के कारण पाठों में अन्तर आता गया। टीकाकार तक आते-आते अनेक पाठों में बहुत भेद आ गया।
___ समान पाठों को संक्षेप में लिखने की रुचि से भी उनमें अन्तर आया है। संक्षेपीकरण का एक रूप न होने के कारण कहीं कुछ और कहीं कुछ पाठ लिख दिए गए हैं। 'जाव' शब्द संक्षेपीकरण का वाहक है, परन्तु एकरूपता न रहने के कारण कहीं दो शब्द अधिक और कहीं दो शब्द न्यून गृहीत हुए हैं। इनसे भी पाठों में अन्तर आया है। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए पाठसंपादन में हमने कई दृष्टियों का आलम्बन लिया है
१. पुनरावृत्त होने वाले पाठों का एक दूसरे से मिलान । २. व्याख्या-ग्रंथों के आधार पर पाठ-निर्धारण । ३. अर्थ-मीमांसा के आधार पर पाठ-निर्धारण। ४. प्राचीन आदर्शों के आधार पर पाठ-निर्धारण । ५. अन्यान्य आगमों के आधार पर पाठ-निर्धारण ।
इनमें जो जहां उचित लगता है, वहां उसका उपयोग किया जाता है। कहीं-कहीं एक से ज्यादा का आलम्बन लिया जाता है। प्रकाशित आगमों में मूलपाठ वाले संस्करणों का सूक्ष्म अध्ययन करने पर पाठ-सम्पादन का महत्त्व स्वतः ज्ञात हो जाएगा।
__ प्रस्तुत निबंध में मैं ज्ञाताधर्मकथा के मूल पाठ के सम्पादन में आई हुई कुछेक कठिनाइयों तथा उनके समाधानों का विवरण प्रस्तुत करना चाहूंगा।
अभी हमारी आंध्र प्रदेश की यात्रा सम्पन्न हो रही है और हम उड़ीसा तथा मध्यप्रदेश की यात्रा के लिए कृतसंकल्प हैं। इस यात्रा में छठे अंग 'ज्ञाताधर्मकथा' का सम्पादन प्रारंभ किया है। हमारे आगम-कार्य के वाचना