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आगम-सम्पादन की यात्रा टीकाकार हरिभद्रसूरि क समय तक यह नियुक्तिकार के श्लोक के रूप में प्रसिद्ध रहा था। इसका स्पष्ट उल्लेख स्वयं टीकाकार ने 'नियुक्तिकार आह'-ऐसा लिख कर किया है। किन्तु बाद में 'नियुक्तिकार आह' यह छूट गया और यह श्लोक मूल-पाठ के साथ पढ़ा जाने लगा।
इस प्रकार व्याख्याओं के सम्मिश्रण से मूल-पाठों में अनेक परिवर्तन हुए हैं। अर्थ-विस्मृति
___ औपपातिक के छत्तीसवें सूत्र में काय-क्लेश के अनेक प्रकार बताए हैं-ठाणद्विइए ठाणाइए....। नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ने इस पर टीका करते हुए 'ठाणट्ठिइए' को मूल पाठ मानकर 'ठाणाइए' को पाठान्तर माना है। उन्होंने इस शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-'ठाणट्ठिइए' त्ति स्थानं-कायोत्सर्गस्तेन स्थितिः-स स्थानस्थितिकः। पाठान्तरेण 'ठाणाइए' त्ति स्थानं-कायोत्सर्गस्तमतिगच्छति करोतीति स्थानातिगः।' (पत्र ७५)।
__ लगता है यहां मूल शब्द तथा उसकी भावना टीकाकार के सामने अस्पष्ट रही है। वास्तव में यहां पर 'ठाणाइए' पाठ का और उसका संस्कृत रूपान्तर 'स्थानादिकः' होता है, 'स्थानातिग' नहीं। स्थान आदि–इस आदि शब्द से सूत्रकार कायोत्सर्ग के प्रकारों की सूचना देते हैं। कायोत्सर्ग तीन प्रकार का होता है-१. उत्थित कायोत्सर्ग, २. निषन्न कायोत्सर्ग और ३. शयित कायोत्सर्ग-ये तीनों प्रकार जैन-योग साधना में प्रचलित रहे हैं। परन्तु टीकाकार ने इस भावना को ग्रहण न कर 'ठाणाइए' का अर्थ कायोत्सर्ग करने वाला मात्र किया है, जो कि मूल भावना से बहुत दूर जा पड़ता है।
८. आगमपाठ-शोधन : कुछ मीमांस्य स्थल यह वि. सं. २०१२ की बात है। आचार्यश्री तुलसी का चतुर्मास उज्जैन में था। वहां 'आगम-कोश' के निर्माण कार्य से आगम-सम्पादन का कार्य प्रारंभ हुआ। आज इस कार्य को प्रारंभ किए चौदह वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवधि में आचार्यश्री ने लगभग बीस हजार मील की यात्राएं कर उत्तर में बंगाल, दक्षिण में कन्याकुमारी तथा मध्यवर्ती क्षेत्रों का स्पर्शन किया है। इन