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आगम-सम्पादन की यात्रा १. (क) दशवैकालिक सूत्र के दशवें अध्ययन में चौदहवें श्लोक का अन्तिम चरण है-'तवे रए सामणिए जे स भिक्खू'। इसका अर्थ किया गया है-'जो श्रमणसंबंधी तप में रत है, वह भिक्षु है।' सभी प्रतियों में प्रायः यही पाठ मिलता है, किन्तु यहां 'तवे' के स्थान पर 'भवे' पाठ होना चाहिए। तब इसका चरण होगा 'भवे रए सामणिए जे स भिक्खू।' जो श्रामण्य में रत रहता है, वह भिक्षु है। यह सहज अर्थ है। पहले वाले वाक्य में श्रामण्य को तप का विशेषण माना है, पर वह विशेष अर्थवान् नहीं लगता। प्राचीन लिपि में 'भ' और 'त' के लिखने में बहुत ही कम अन्तर रहता था। लिपि-दोष के कारण यह वर्ण-विपर्यय हुआ है। अर्थ का मूल में प्रवेश
(ख) निशीथ सूत्र के नौवें उद्देशक के छठे सत्र में अनेक प्रकार के 'भत्त' गिनाए गए हैं। उनमें 'पाहुणभत्त' भी एक है। यह शब्द विमर्शनीय है। चूर्णि के अध्ययन से पता लगता है कि चूर्णिकार के सामने 'आदेशभत्त' पाठ रहा और उन्होंने उसका अर्थ करते हए लिखा है-'रण्णो कोति पाहुण्णो आगतो तस्स भत्तं आदेशभत्तं।' यहां चूर्णिकार ने 'पाहुणगभत्त' को आदेशभत्त का अर्थ माना है। कालान्तर में यह अर्थ ही मूल पाठ बन गया और जो मूल था, वह विस्मृत हो गया।
२. उत्तराध्ययन सूत्र में बावीसवें अध्ययन का चौबीसवां श्लोक इस प्रकार है
अह से सुगंधगंधिए, तुरियं मउयकुंचिए।
सयमेव लुचई केसे पंचमुट्ठीहिं समाहिओ।। यहां आया हुआ 'पंचमुट्ठीहिं' शब्द विमर्शनीय है। वास्तव में यह पाठ 'पंचट्ठाहिं' था। 'अट्ठा का अर्थ है-मुष्टि। पंच अट्टा अर्थात् पंचमुष्टि। पंचम शब्द अपरिचित था। बृहवृत्तिकार ने 'पंचट्टाहिं' पाठ मानकर उसका अर्थ 'पंचमुष्टि' किया है। कालान्तर में यह व्याख्यात अर्थ ही मूल पाठ बन गया।
३. प्राचीन काल में आगमों के साथ-साथ व्याख्याएं भी कंठस्थ रखी जाती थीं। चलते-चलते कालान्तर में वे व्याख्याएं ही मूल-पाठ के साथ जुड़ गईं। इसका स्पष्ट उदाहरण हमें दशवैकालिक सूत्र पर उपलब्ध प्राचीन