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पाठ-परिवर्तन तथा अर्थ-विस्मृति संग्राहक शब्द भी नहीं हैं। अतः पाठक संक्षेप को पकड़ पाने में असमर्थ ही रहता है। जब तक सूत्र-पाठों से पौर्वापर्य का ज्ञान नहीं होता, ऐसे पाठ बहुत भ्रम पैदा कर देते हैं।
आचारांग सूत्र के आठवें अध्ययन के दूसरे उद्देशक में एक पाठ है
'से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिद्वेज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुयडेज्ज वा, सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा....' (आचा. ८।२।२१)।
अर्थात् वह भिक्षु श्मशान, शून्यगृह, गिरि-गुफा, वृक्षमूल, अथवा कुम्भकार-आयतन में जाए, ठहरे, बैठे, सोए आदि-आदि......इस पाठ में प्रयुक्त 'कुंभारायतणंसि' (सं. कुम्भकारायतने) शब्द विमर्शनीय है। श्मशान आदि का उल्लेख करते-करते केवल कुम्भकार-आयतन की बात सहज समझ में नहीं आती। यह शब्द श्मशान आदि चार शब्दों से विलग पड़ जाता है। संभव है यहां कुम्भकार-आयतन के साथ-साथ अन्य-अन्य आयतनों का भी उल्लेख रहा हो। यह तथ्य आचारांग चूर्णि की अर्थपरम्परा से स्पष्ट परिलक्षित होता है। किन्तु टीकाकाल में वे सारे शब्द छूट जाते हैं और टीकाकार केवल 'कुंभारायतणंसि' का अर्थ कर छोड़ देते हैं। संक्षेपीकरण के कारण पहले यहां 'जाव' शब्द का प्रयोग रहा होगा। किन्तु आगे चलकर वह भी छूट गया और बिना 'जाव' वाली प्रति से टीकाकार ने टीका लिखी होगी। इस भूल के कारण आज उस पाठ में केवल 'कुंभारायतणंसि वा' रह गया और शेष पाठ छूट गया। शेष पाठ के अभाव में इस एक शब्द का यहां कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता।
७. पाठ-परिवर्तन तथा अर्थ-विस्मृति पाठ-परिवर्तनों का मुख्य हेतु लिपि है। लिपि परिवर्तित होती रहती है। यह परिवर्तन लिपिकर्ता के समक्ष एक समस्या पैदा करता है। लिपि को पूर्णरूप से न जानने के कारण अनुमान का सहारा लेकर कई शब्द लिख दिए जाते हैं। लिखने में प्रमाद भी हो सकता है। प्रतिलिपि करने वाले सबके सब विद्वान् नहीं होते। इन सभी कारणों से पाठ-परिवर्तनों की एक लम्बी श्रृंखला चल पड़ती है।