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शोध-कार्य में आनेवाली समस्याएं और समाधान प्रतिपाद्य सहज गम्य नहीं होता।
संक्षेपीकरण विशेषतः गद्य भाग में अधिक हुआ है और कहीं-कहीं पद्य भाग भी उससे अछूते नहीं रहे हैं। रचनाकार द्वारा स्वीकृत संक्षेपीकरण का एक उदाहरण मैं प्रस्तुत कर रहा हूं।
दशवैकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन का छब्बीसवां श्लोक इस प्रकार
कण्णसोक्खेहिं सद्देहिं, पेमं नाभिनिवेसए।
दारुणं कक्कसं फासं, काएण अहियासए ।। यहां पांच श्लोकों का एक श्लोक में समावेश किया गया है। ऐसी स्थिति में पांच श्लोकों को जाने बिना, इस श्लोक-विषयक अस्पष्टता बनी रहती है। यथार्थ में पांचों इन्द्रियों के पांचों विषयों को समभावपूर्वक सहने का उपदेश इन पांच श्लोकों से अभिव्यक्त होता है। किन्तु श्लोकों के अधिकांश शब्दों का पुनरावर्तन होने के कारण तथा आदि, अन्त के ग्रहण से मध्यवर्ती का ग्रहण होता है-इस न्याय से रचनाकार ने वर्ण, शब्द और स्पर्श का ग्रहण कर पांच श्लोकों के विषय को एक ही श्लोक में सन्निहित कर दिया।
चूर्णिकार तथा टीकाकार ने इस विषय की कुछ सूचना दी हैं, किन्तु उन्होंने पांचों श्लोकों का अर्थ नहीं किया। निशीथ चूर्णि तथा बृहत्कल्पभाष्य में आद्यन्त के ग्रहण से मध्य का ग्रहण होता है इसे समझाने के लिए इस श्लोक को उद्धृत कर पांच श्लोक देते हुए लिखा है
हे चोदग! जहा दसवेयालिते आयारपणिहीए भणियं-कण्णसोक्खेहि सद्देहिं...........
एत्थ सिलोगे आदिमंतग्गहणं कयं इहरहा उ एवं वत्तव्वं१. कण्णसोक्खेहिं सद्देहिं, पेम्मं णाभिणिवेसए।
दारुणं कक्कसं सई, सोएणं अहियासए ।। २. चक्खूकंतेहिं रूवेहिं, पेम्मं णाभिनिवेसए।
दारुणं कक्कसं रूवं, चक्खुणा अहियासए । ३. घाणकंतेहिं गंधेहिं, पेम्मं णाभिणिवेसए।
दारुणं कक्कसं गधं, घाणणं अहियासए ।