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आगम-सम्पादन की यात्रा
प्रौढ़ता बढ़ती है। मैं इसे मौलिक अध्ययन मानता हूं और मेरा दृढ़ विश्वास है कि इसके परिपार्श्व में जो कुछ लिखा जाएगा, वह मौलिक ही होगा।' मैं पूर्णतः इस बात को नहीं भी पकड़ सका, किन्तु इसके पीछे जो सत्य बोल रहा था, उसे मैं समझने का यत्न करता रहा ।
६. शोध-कार्य में आनेवाली समस्याएं और समाधान
आगम-शोध-कार्य के अनेक अंग हैं-मूल-पाठ का संशोधन, संस्कृतछाया, अनुवाद, टिप्पण, तुलनात्मक अध्ययन, समीक्षात्मक अध्ययन, शब्दसूची का निर्माण आदि-आदि। इन सब कार्यों में मूल-पाठ का संशोधन और निर्धारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है, क्योंकि आगम-शोध-कार्य के दूसरे सारे अंग इसी पर आधृत हैं। पाठ-संशोधन के लिए प्राचीन आदर्श उपलब्ध किए जाते हैं और एक प्रति को मुख्य मानकर कार्य आगे चलता है। परन्तु यह आश्चर्य की बात है कि जितने आदर्श उतने ही पाठ-भेद। कोई भी एक प्रति ऐसी नहीं मिलती जिसके सारे पाठ समान रूप से मिलते हों और यह सही है कि जहां हाथ से लिखा जाए वहां एकरूपता हो नहीं सकती, क्योंकि लिपिदोष या भाषा की अजानकारी के कारण अनेक त्रुटियां हो जाती हैं। प्राचीन आदर्शों में प्रयुक्त लिपि में 'थ', 'ध' और 'य' में कोई विशेष अन्तर नहीं है। इस कारण से 'थ' के स्थान पर 'ध' या 'य' और 'य' के स्थान पर 'ध' या 'थ' हो जाना कोई असंभव बात नहीं है। इस संभाव्यता ने अनेक महत्त्वपूर्ण पाठों को बदल दिया और आज उनके सही रूपों को जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। उदाहरण के लिए 'धाम' शब्द 'थाम' या 'याम' बन गया। तीनों के तीन अर्थ होते हैं, पाठक किस शब्द को मूल मानकर अर्थ करें?
संक्षेपीकरण-आगम-सूत्रों के मूलपाठों का संक्षेपीकरण दो कारणों से हुआ है
१. स्वयं रचनाकार द्वारा स्वीकृत संक्षिप्त शैली के कारण। २. लिपिकर्ताओं द्वारा सुविधा के लिए किए गए संक्षेप के कारण।
आगमों में दोनों प्रकार के संक्षेपीकरण के उदाहरण मिलते हैं। इन संक्षेपीकरणों से अनेक कठिनाइयां भी उत्पन्न हुई हैं। इनसे अर्थ-संग्रहण तथा