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पाठ-संशोधन : एक मौलिक कार्य
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अपने परिपार्श्व में इसके लिए कार्यकर्त्ताओं की एक सुन्दर कड़ी निर्मित की
है ।
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अभी-अभी एक दिन राजस्थान के प्रमुख कवि श्री कन्हैयालाल सेठिया ने मुनिश्री से प्रार्थना की- 'आप इस शोध कार्य में अपना जीवन क्यों लगा रहे हैं? इस कार्य को विद्वानों को सौंपकर आप कुछ मौलिक देन दीजिए । आप जैसे प्रखर प्रतिभा वालों से सारा संसार लाभान्वित हो सकता है । परन्तु मैं देखता हूं कि आप इस कार्य में इतने व्यस्त रहते हैं कि मौलिक चिन्तन-मनन के लिए समय भी नहीं मिलता होगा। दूसरी बात है कि व्यक्ति अमुक-अमुक वय तक ही कुछ मौलिक देन दे सकता है। उम्र के ढल जाने पर उसमें मौलिक सूझ-बूझ की कमी हो जाती है। इसीलिए आपको इस कार्य से हटकर विभिन्न विषयों पर अपना मौलिक अनुभव, चिन्तन और मनन प्रस्तुत करना चाहिए ।'
मुनिश्री मुस्कराए और चुप हो गए ।
प्रतिदिन की भांति आज भी आचार्यश्री के समक्ष आचारांग का वाचन चल रहा था । मुनिश्री आचारांग के गूढ़तम सूत्रों के रहस्यों को खोल रहे थे । बीस-पचीस विद्यार्थी, साधु-साध्वियां दत्तचित्त हो उनको सुन रही थीं । प्रसंग चला। मैंने आचार्यश्री से कहा - ' पाठ - संशोधन जैसे कार्य में मुनिश्री का इतना समय लगाना कुछ अटपटा सा लगता है । आजकल मैं देख रहा हूं कि मौलिक सृजन के लिए उनके पास अवकाश ही नहीं रह पाता। ऐसी प्रतिभाएं यदा-कदा ही आती हैं और यदि उनका समुचित उपयोग नहीं होता तो संघ के परिवार को तथा अन्यान्य लोगों को बहुत बड़े लाभ से वंचित रहना पड़ता है।' आचार्यश्री ने कहा- 'तुम पाठ - संशोधन को मौलिक कार्य नहीं मानते, यह तुम्हारी भूल है । मैं मानता हूं कि शोध कार्य का सबसे प्रमुख
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अंग है मूल पाठ का निर्धारण और यह कार्य प्रत्येक कर नहीं सकता। दूसरी बात है कि पाठ-संशोधन के क्रिया-काल में ये कितने लाभान्वित हुए हैं - उसे इनकी जबानी ही सुनो।' मुनिश्री नथमलजी ने कहा- 'पाठ - निर्धारण में पौर्वापर्य का अनुसंधान अत्यन्त अपेक्षित होता है और यह तभी संभव है कि एक-एक शब्द पर चिन्तन को केन्द्रित कर उसके हार्द को समझा जाए। इस प्रवृत्ति से विचारों की स्पष्टता, चिन्तन की गढ़ता और अर्थ - संग्रहण की