________________
पाठ-परिवर्तन तथा अर्थ-विस्मृति चूर्णि में मिलता है। इसके रचयिता अगस्त्यसिंह स्थविर हैं और उनका कालमान वि. की तीसरी या पांचवीं शताब्दी है। वर्तमान में उपलब्ध दशवैकालिक सूत्र की हस्तलिखित प्रतियों में चतुर्थ अध्ययन में एक पाठ इस प्रकार है-'जे य कीयडपयंगा जा य कुंथु पिवीलिया सव्वे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सव्वे चउरिदिया सव्वे पंचेंदिया, सव्वे देवा....।'
___ अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार यह पाठ इस प्रकार है-'जे य कीडपयंगा जा य कुंथुपिवीलिया, सव्वे देवा....।'
चूर्णिकार ने लिखा है कि यहां 'द्वी' द्वीन्द्रिय जाति का प्रतीक है, इसलिए उसके द्वारा द्वीन्द्रिय जाति का ग्रहण कर लेना चाहिए। इसी प्रकार 'पयंग' 'कुंथु' 'पिवीलिया' भी अपनी-अपनी जाति के संग्राहक शब्द हैं। इनसे भी उस-उस जाति का ग्रहण कर लेना चाहिए। 'सव्वे बेइंदिया, सव्वे तेइंदिया, सव्वे चउरिदिया, सव्वे पंचेंदिया' ये व्याख्या के शब्द थे। आगे चलकर ये शब्द मूल पाठ में आ गए, इसीलिए टीकाकारों ने उन्हें मूल मानकर उनकी व्याख्या लिखी।
४. दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्ययन के सातवें श्लोक में मुनि को अट्ठारह स्थानों के वर्जन का निर्देश दिया गया है
दस अट्ठ य ठाणाइं, जाई बालोऽवरज्झई।
तत्थ अन्नयरे ठाणे, निग्गंथत्ताओ भस्सई। इस श्लोक में केवल यह निर्देश है कि साधक अट्ठारह स्थानों का वर्जन करे, अन्यथा वह निर्ग्रन्थिता से भ्रष्ट हो जाता है। परन्तु यहां यह नहीं बताया गया कि वे अट्ठारह स्थान कौन-कौन से हैं? हालांकि अट्ठारह स्थानों के विधिनिषेध के हेतुओं का अगले श्लोकों में स्पष्ट उल्लेख है। नियुक्तिकार ने इन अट्ठारह स्थानों का संग्रह कर एक श्लोक की रचना इस प्रकार की है
वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं।
पलियंक निसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं ।। यह श्लोक प्रारंभ में व्याख्या के रूप में प्रचलित रहा होगा, किन्तु कालान्तर में यह मूल में प्रवेश पा गया और आज प्रायः प्रतियों में यह मूल पाठ के साथ लिखा हुआ मिलता है। वि. की आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध