Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू०७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् खलु कि संस्थिता तापक्षेत्रस्य सूर्यप्रकाशप्रकाशितगगनखण्डस्य संस्थितिः व्यवस्था प्रज्ञप्ताकथिता सूर्यातपस्य कीदृशं संस्थानं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'उद्धीमुहकलंबुआ पुप्फसंठाणसंठिया' ऊर्वी मुखक लम्बुकापुष्पसंस्थान: संस्थिता, तत्र ऊर्ध्वमुपरि कृतं मुखं यस्य तत् ऊ मुखम् अधोमुखत्वे तिर्यमुखत्वे वा वक्ष्यमाणाकारप्रदर्शनासंभवात्, एतादृशं यत् कलम्बुका पुष्पम्-पुष्पविशेषः कदम्बपुष्पमित्यर्थः तस्य कलम्बुकापुष्पस्य यत् संस्थानम्-आकारस्तेन संस्थिता-तादृश संस्थानविशिष्टा 'तावखेत्तसंठिई पन्नता' तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता-कथिता मया वर्द्धमानस्वा मिना शेषैरपि तीर्थकरैश्चेति, इदमेव संस्थानं विविच्य दर्शयति-'अंतो संकुया' इत्यादि, 'अंतो संकुया' अन्तः मेरुपर्वतदिशि संकुचिता 'बाहिं वित्थडा' बहिर्विस्तता तत्र बहिर्लवणसमुद्रदिशि विस्तृता विस्तारवती तापक्षेत्रसंस्थितिः, तथा-'अंतो वट्टा बाहिं विहुला' अंतो वृता तापक्षेत्र की-सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हुए गगन खण्ड की क्या व्यवस्था होती है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! उद्धीमुह कलबुआ पुष्फसठाणसंठिया! हे गौतम ! ऊपर की ओर मुखवाले कदम्ब पुष्प का जैसा आकार होता है ऐसा ही आकार व्यवस्था-'तावखेत्तसंठिई पण्णत्ता' सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हुए गगन खण्ड का होता है "उर्वी मुख" इस विशेषण से सूत्रकारने अधोमुखवाले एवं तियङ्मुखवाले कदम्ब पुष्प का निराकरण किया हैं क्यों कि वक्ष्यमाण आकार प्रदर्शना ऐसे कदम्ब पुष्प के आकार से मिलती नहीं हैं 'अंतो संकुया, बाहिं वित्थडा, अंतो वट्ठा, बाहि विहुला, अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सगडद्धी मुहसंठिया' इसीबात को सूत्रकार ने विवेचित कर के इस प्रकार से प्रकट किया है-मेरु पर्वत की दिशा में यह लोकसंस्थिति संकचित हो गई है और लवण समुद्र की दिशा में विस्तृत हो गई है। मेरु की दिशा में यह अर्द्धवलय के आकार जैसी होगई है तथा लवण समुद्र की दिशा પ્રકાશિત થયેલા ગગનખંડની શી વ્યવસ્થા હોય છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે'गोयमा ! उद्धीमुह कलंबुआ पुप्फस ठाणसठिया' है गौतम ! ५२नी २५ भुभवाणा ४६५ पु०पना वो मा४१२ ३.५ छ, तेव। २४ मार व्यवस्था 'ताव खेत्तसठिई पण्णत्ता' सूर्यना प्रशथी शत थयेगगनभनी थाय छे. 'ऊर्ध्वमुख' मा विशेषyथा सत्रકારે અધોમુખવાળા તેમજ તિય મુખવાળા કદંબ પુષ્પનું નિરાકરણ કર્યું છે. કેમકે વફ્ટમાણ આકાર પ્રદશના એવા કદંબ પુષ્પના આકાર સાથે મળતી આવતી નથી “ચંતા संकुया, बाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा बाहिं विहुला, अंतो अंकमुहसठिया बाहिं सगडद्धी मह. संठिया' मा पातने सूत्र॥२ मा प्रमाणे २५७८ ४२ छ । भे२५ तनी मां माना। સંસ્થિતિ સંકુચિત થઈ ગઈ છે. અને લવણસમુદ્રની દિશામાં વિસ્તૃત થઈ ગઈ છે. મેરુની દિશામાં આ અર્ધવલયના આકાર જેવી થઈ ગઈ છે. તેમજ લવણસમુદ્રની દિશામાં
જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર