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प्रगा
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अगा
(नॉट ऑफिशल Not official)
छत्रिका वर्ग (5. (). Polyporate " ngiMushroom.") उत्पत्तिस्थान-दक्षिण तथा मध्य युरूप, साहबेरिया; एशिया माइनर, पञ्जाब, संयुक्र प्रान्त प्राचीन ( सनोबर वृक्ष ) । नामविवरण-युनानी हकीम दीसकरीदृस ( Diostoritles) के मतानुसार जिसने सर्व प्रथम उक्र श्रीपध का वर्णन किया है इसका युनानी नाम अगारीकून ( Agarikon) अगारिया यं, जो सर्माशिया में एक देश है, व्युत्पन शब्द है । चूकि उक्र औषध उस प्रदेश में अधिकता के साथ उत्पन्न होती है; अस्तु वह उस नाम से अभिहित हुई ।
औषधविनिश्चय---गारीकन [कत्रिका ] के विषय में प्राचीन तथा अर्वाचीन चिकित्सकों में बहुत कुछ मनभेद है। अस्तु, किसी के मत से यह किसी प्राचीन वा सड़े हुए वृक्ष यथा अंजोर व गूलर की सड़ी गली हुई जड़ है जो उसके ग्वाम्ग्वलों में से निकलती है; तथा किसी किसी के कथनानुसार यह गार वृत की जड़ है, इत्यादिपरन्तु किसी ने उदाहरण स्वरूप हकीम मुहम्मद चिन अहमद ने इसका यथार्थ वर्णन किया है। कि सारीकृन छत्रिका के प्रकार की एक बूटी है
और इग्नमासूया ने जो लिखा है कि गारीक़न नर व मादा होता है तथा विभिन्न वर्ण का (श्वेत, पीत, रक्त तथा श्यान) होता है यह भी सत्य है। अस्तु, श्वेत छत्रिका जो युरूप के कतिपय प्रदेशों में श्रौषध-तुल्य व्यवहृत होती है वास्तव में माना ग़ारीकन ही है। नोट-मशरूम (Hushroom ) जिसका संस्कृत में छत्रिका या वर्षाजा, अरबी में फ़ित र, फारसी में समारांग और हिन्दी उदू में खुम्बी कहते हैं, सैकड़ों प्रकार के होते हैं । इनमें से कोई खाद्य कार्य में प्राने हैं श्रीर कोई ग्रीषध में तथा कोई कोई अत्यन्त विपले होते हैं मुख्यतः वे जो काए वर्ग के होते हैं । अस्तु माक्षिक छत्रिका
(Fly agric) इसी अन्तिम प्रकार में से है। यह चमकीले घ की ग्बुम्बी है जिसमें मस्करीन (घातकीन ) नामक पदार्थ वर्तमान होता है । इसमे धर्म ग्रन्थियों में अन्न होनेवाली नाड़ियों (बोधनम्नु) वातग्रस्त होजाती हैं। छत्रिकाएँ बहुधा भूमिपर उत्पन्न होनी हैं। अम्नु, वर्षा ऋतु में ये इतनी अधिकता के साथ उत्पन्न होती हैं कि इनके उम्पत्याधिक्य का उदाहरण दिया जाता है। परन्तु किसी किसी प्रकार की छनिकाएँ प्राचीन वृक्ष की जड़ प्रभृति पर उत्पन्न होती हैं। अस्तु श्वेन छत्रिका (गारीकन नि वी) भी उसी प्रकार की छत्रिकानी में से है । अाज से अर्द्ध शताब्दि पूर्व युरूप में तीन प्रकार की छत्रि. का ( ग़ारीकन ) व्यवहार में पाती थी, जैसे--- (1)-श्वे। छत्रिका, (२)--मान्तिक छग्निका तथा (३)--शालय त्रिका । परन्तु अधुना इनमें में केवल प्रथम प्रकार की छत्रिका ही युरूप के किसी किसी प्रदेश में प्रयोग की जाती है। इतिहास-त्रिका का औपधीय उपयोग अति प्राचीन है। हकीम दीसकरीदस Dioscorithis ने इसके नर मादा दो भेदों का वर्णन किया है । इनमें से नर बिलकुल सीधा लपेटदार गोल होता हैं और इसके भीतर पृष्ठ पर परत नहीं होते, परन्तु यह एक समान होता है। मादाकी अन्तः रचना कंघी के समान परतदार होती है और यही सर्वोत्तम है । स्वाद में दोनों समान अर्थात् प्रारंभ में मधुर तथा पश्चात को कटु होते हैं। इनके अतिरिक्त लाइनी, फ्रीरा आदि ग्रुनानी, इग्नसीना ग्रादि मुसलमान तथा राजमिधंद, भावप्रकाश श्रादि अायुर्वेदिक चिकित्सा ग्रन्थकारी ने अपने अपने तौर पर इसके उपयोग का पर्याप्त वर्णन किया है।
वानस्पतिक विवरण - यह वृतो नया भूमिपर उत्पन्न होने वाला एक पराश्रय छोटा पौधा है जो वर्षा ऋतु में अधिकता से उत्पन्न होता है। इसका गर्भान्वित भाग बाहर वाय में होता है। यह सीधा ऊपर को बढ़ना है । इसके नने के आरक कार कला रहता है । भीतर
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