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प्रतिक्षित संधिः
अतीस
प्रतिक्षिप्त संधिः ati-kshipta-sandhih - सं० पु. (Complete dislocation) संधि का सर्वथा भिन्न हो जाना, अन्यन्त संधि- । च्युति, जिसमें मंधि और अस्थि दोनों हट जाएँ। इसमें दोनों संधियों और अस्थियों में अन्तराय हो जाता है और पीड़ा होती है। सु०नि०१५ प्र० । “अतिषिले दुयोः संध्यस्थनोरतिक्रांतता
वेदना च"। - । देबो- भग्नः । अतीक aatig-० (१) पुरातन, प्राचीन,
पुराना-हि० । देरीनह , कुह नह , पुराना-फा (२) पुरातन वसा । (३) छोहारा भेद । (४) जल । (५) सुवर्ण । (६) मघ । (.)
अतीत atit-अ० (.) पुधा । (२) पाटोप,
गुडगुदाहट (कराना ) । गलिज
Gurgling-इं० । म० ज. अतीन्द्रिय atindriya-हिं० वि० [सं०]
जो इंद्रिय ज्ञान के बाहर हो। जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा न हो। अगोचर | अप्रत्यक्ष |
अन्यक्र। अतीस atisa-हि. संशा पु. [सं०] अति
विषा, अतिक, प्रातहण । एकोनाइटम् हेटरो. फाइलम् Aconitum Heterophyllum, Wall.. ( Root of-); ए. कॉडेंटम् ( A. Cordatum)-ले० । इंडि. यन अतीस ( Indian Atoes )-101 ___ संस्कृत पाय-घुणवल्लभा ( भा० ), निका (शब्दर०), विश्वा, विषा, प्रतिविषा, उपनिषा, अरुणा, शशी, महौषधं (अ.), काश्मीरा, श्वेता (र०), प्रविषा (के), श्वेतकन्दा, भुजा, भङ्गुरा, विरूपा, श्यामकन्दा, विपरूपा, बीरा, माद्री, श्वेतश्चा, अमृता, अतिविषा, । अतिविषः, शुक्रकन्दा, शृङ्गीका, भृङ्गी, मृद्री, । शिशु भैषज्य, अतिसारनी, घुरणप्रिया, शोकापहा, !
। (बिलायसो) वज्जे-तुर्की-२० ।। माता-बं० । बजे-तुर्की फा०। (शीम)। अतिवडयम्-ता० । (सीम) असिवस (खेड्डु ), प्रतिवासा-ते, तै। अतिविप-मह । अति-
वख ( विष) नी-कली, अतिवस, अतिवख, अतिविष-गु० । अागे सफेद, मोहन्दे गज सफेद -काश० । प्राइस-भोटि. । सूखी हरी, चिति जदी, पत्रीस, पीस, बोंगा-६० । अतीविषा -क ।
___ वरूनाभ वर्ग (N.O. Ranunculacere.) उत्पत्ति-स्थान-एक पौधा जो हिमालय के किनारे सिंध से लेकर कुमाऊँ तक समुद्र-तट से ६,००० से लेकर १५,... फ्रीट की ऊँचाई पर पाया जाता है।
नाम विवरण-"श्वेतकन्दा", "भंगुरा"; "धुवावल्लभा" आदि परिचय ज्ञापिका संज्ञाएँ और "अतिसारनी" और "शिशुभैषज्यम्" प्रभृति गुणप्रकाशिका संज्ञाएँ हैं।.. __ वानस्पतिक धर्णन-अनीस के क्षुप हिमा. लय के ऊँचे भागों पर उत्पन्न होते हैं । इसके पत्ते नागदौन पत्र के समान किन्तु चौड़ाई में उससे किञ्चित् छोटे होते हैं । शाखाएँ चिपटी होती हैं और पत्रवृन्त मूल से पुष्पदण्ड निकलते हैं पप्पदण्ड (पुष्पदण्ड की व्याख्या के लिए देखो-"प्रारग्वध" ) पत्रवृत्तसे दीर्घतर होते हैं प्रस्फुटित पुष्प देखने में टोपी की तरह दीख पड़ते हैं। ईपट्टीर्घ कंद के गाय से मूल निकलता है। यह मूल प्रतीस (अतिविषा) नाम से विख्यात है। यह प्रोषधि धूसर और श्वेत दो भागों में विभक्त होती है। धूसर लहरदार कंद जो श्वेत को अपेक्षा बड़े और लम्बे होते हैं, प्रधान मूल हैं और प्रायः पृथक कर कम दाम पर बेचे जाते हैं। सज्जन्य लघु कंद बाहर से धूसर वर्ण के और शाखकों के सूक्ष्म चिह्नों से व्याप्त होते हैं । ये से २ इंच लम्बे, शंक्वाकार या लगभग अण्डाकार, पतले मूस. लावत छोरयुक्र, जो कभी कभी दो वा दो में विभक होने की प्रवृत्तियुक्र होते हैं। सिरे पर छिलकायुक्र पनाङ्कर होता है। तोड़ने पर भीतर श्वेतसार के सफेद कण दिखाई देते है। यह स्वाद में अतितिक और गंधरहित होता है ।
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