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अपामार्ग
अपामार्ग
भाघाटः, प्रत्यक पुष्पी, खरमञ्जरी, पंकिकराटकः, | रक्रविन्दुः, अल्पपत्रका, क्षवकः, किणिही, तथा व्रणहन्ता । अपाङ्, चिचिरि, प्रोपङ्, पापा | -बं०। प्रत्कुमह -१० । वारे-वाज़गूनह , खारेवाज-फा० । पु:कण्ड, फुटकण्डा, कुत्री-पं० । चिर्चिरी-विहा० । अगाड़ा, अघाड़ा-द० । नायुरिवि, शिरु-काडलाडी-ता० । उत्त-रेणि, अगिटश, अपामार्गमु, प्रत्युक्-पुष्पि, दुच्चीणिके -ते०, ० । कटलाटि, कडालादि-मल। उत्राणि-गिडा, उत्तराणि, उत्तरणि, उत्तरणे -कना। उपाणिच-झाड, प्राधाड़ा, प्राधेड़ा (पांडर अघाड़ा-श्वेतापामार्ग)-मह० । अधेड़ो, झिजरबट्टो-गु० । गस्करल-हेब्बो-सिं० । किच-ला-मौ, कुन-ला-मौ-बर्मी० । सुफेद आँधीझाडी, प्राधा-भाडा-मा० । अंधाहोली -राज०। उत्तरणे--का० । उत्तरैणि--को । प्रघाड़ा, चिचिया--बम्ब० ।
तण्डलीय वर्ग (V. O. Amarantacex ) उत्पत्ति-स्थान--सर्वत्र भारतवर्ष तथा एशिया | के वे भाग जो उपण कटिबन्ध पर स्थित हैं।
संज्ञा-निर्णय-डिमक महोदय ( २ य खंड १३६ पृ०) "अध्वशल्य" शब्द का अर्थ "Roadside rice" अर्थात् पथिपार्श्वस्थ तण्डुल ( मार्ग के किनारे का चावल ) करते हैं । परन्तु शल्य शब्द का अर्थ तण्डल नहीं, प्रत्युत शरीर में जिससे कुछ भी पीड़ा उत्पन्न हो उसको शल्य कहते हैं । डल्यण मिश्र लिखते हैं :'यत्किञ्चित् अवाधकर शरोरे तत्सर्वमेव प्रवदान्त शल्यम्' (सू० टी०श्मन)। अपामार्ग की मञ्जरी ककंश होती है और उसका वस्त्र वा गात्र से स्पर्श होने से क्रेशप्रद होती है इस कारण उसको मार्ग का शल्य कहा गया है।
खोरी महोदय (१म० ख०। ५०४ पृ०) अपामार्ग का यह अर्थ करते हैं,-अप या पाव= जल+मार्ग=रजक, धोबी (Apa or ab wa. ter and marga a Washerman) i यह अर्थ श्रपूर्ण है। मार्ग शब्द का रजक अर्थ
कहीं भी देखने में नहीं आता। उपरोल्लिखित कल्पित अर्थ के निर्देश द्वारा खोरी महोदय ने यह बुझाना चाहा है कि अपामार्गक्षार द्वारा रजक (धोबी) वस्त्र को परिष्कृत करता है । अमरकोष के टीकाकार भानुजी दीक्षित कृत "अपमाजत्यनेन" इस अर्थ द्वारा जहाँ खोरी महोदय के उद्देश्य की सिद्धि हो जाती है, वहाँ उन्होंने उक कल्पित अर्थ की रचना करने का क्रेश क्यों स्वीकार किया?
वानस्पतिक-वर्णन-अपामार्ग एक प्रकार का फलपाकांत चुप है। यह वर्षा का प्रथम पानी पढ़ते ही अंकुरित होता है, वर्षा में बढ़ता, शीत काल में पुष्प व फल से शोभित होता
और ग्रीष्म ऋतु के सूर्य ताप द्वारा फल के परिपक्व होने के साथ ही सूख जाता है। इसका दुप १॥ या २ फुट दीर्घ और कभी कभी इससे भी अधिक उच्च होता है।
काण्ड वा साधारण वृन्त सीधा, वड़ा, चिपटा, चौकोना (रक अपामार्ग की शाखाएँ रक वण की होती हैं), धारीदार और लोमश होता है। पाश्विक शाखाएँ ( पार्श्व वृन्त, ) युग्म, परिविस्तृत; पत्र अति सूक्ष्म शुभ्रवण के रोम से श्रावृत्त, अण्डाकार, पत्र प्रान्त सामान्य, अधिक कोणीय, नोकीले अाधार पर पतले ( रजोपामार्ग के पत्र पर रनविन्मुवत् दाग होते हैं ); पत्रवृन्त
पत्ते की डंडी) लघुः दोनों प्रकार के अपामार्ग की मारियाँ दीर्घ, कर्कश (इसी कारण इसका 'खरमञ्जरी' नाम पड़ा): पुष्प लघु, हरित वा लाल तथा बैंगनी मिले हए रंग के जो मयूर कंटवत होते हैं। इसीलिए इसको मयूरक नाम से अभिहित किया गया है । अँक्ट्स कठोर तथा कण्टकाकीण होते हैं । फल के भीतर बीज होता है। यह प्रायताकार, धूसर वर्ण का, . से 2 इंच लंबा (बीज) होता है ! तण्डुल वत् होने के कारण इसको अपामार्ग तण्डुल कहते हैं । इसका स्वाद तिक होता है।
श्वेत, कृष्ण और रन भेद से अपामार्ग तीन
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