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अम्लिका
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अम्बिका
दो प्रकार की होती है-(.) लाल और (२) भूरे रंग की। इन दोनों में लाल जाति को उत्तम होती है । इसलामी हकीम इमली के गूदे को हृद्य, संग्राही, खुलासा दस्त लाने वाला, पैत्तिक बमनावरोधक, रेचन द्वारा पित्त एवं विदग्ध दोषों से शरीर को शुद्ध करने वाला मानते हैं। जुलाब लाने को जब इसका उपयोग करना हो तब इसके साथ अन्य प्रवाही बहुत थोड़े देने चाहिए। कचत में हमली के पानी के कुल्ल करने से लाभ होता है । बीज को उत्तम संग्राही बतलाया जाता है तथा उबाल कर विस्फोटक | पर इसका उत्कारिका ( Poultice ) रूप में उपयोग किया जाता है। जल में पीस कर कास तथा काग लटक पाने में इसको शिर की दिया पर लगाते हैं। इसके पत्र को जल के साथ कुचल कर बमकर रस निकालने से एक प्रकार का अम्ल द्र प्रस्तुत होता है। इसको पैत्तिक ज्वर एवं मूत्रकाह में लाभप्रद बतलाया जाता है। प्रादाहिक शोथों तथा वेदनाके निवारणार्थ इसकी उस्कारिका उपयोग में पाती है। नेत्राभिष्यम्न में आँख पर इसके पुष्प की पुल्टिस बाँधते हैं। पुष्षके रस का रक्तार्श में अान्तरिक उपयोग होता है। इसके वृक्ष की छाल ग्राहो और पाचक ख्याज की जाती है। (मखूजनुल अद्वियह )
देशी लोग इसके वृक्ष का पवन स्वास्थ्य को हानिप्रद मानते हैं। कहते हैं कि इमली के वृक्ष के नीचे संबू बहुत दिन रखने से उसका कपड़ा सड़ जाता है। यह भी कहा जाता है कि उसके । वृक्षके नीचे अन्य पौधे भी नहीं उगते । परंतु यह सर्वग्यापक नियम नहीं। क्योंकि हम लोगों ने उसके नीचे चिरायता एवं अन्य छाया प्रेमी पौधों को प्रायः उत्पन्न होते हुए देखे हैं। (डीमकफा००१ भा०)
हृदय और प्रामाशय को बल प्रदान करता, हवास को शमन करता, मूर्छाहर, शिरोशूल को लाभप्रद और संक्रामक वायु के विष को दूर करता है। इसके बीज संग्राही और वीर्यस्तम्भक हैं। ख नाक में इसके पत्र के काय का गरदृष कराना साभप्रद है। शुक्रसादकर्ता और योनिसंकोचक
है। इसकी छाल पीस कर छिड़कने से व्रणपूरण होता है । (मु० मु०, बु० मु०) एलोपेथिक मेटीरिया मेडिका तथा
___तिन्तिड़ोफलमज्जा एलोपैथी चिकित्सा में पक्क तिन्तिड़ी-फल-मजा
औषधार्थ व्यवहार में पाती है। यह बिगड़े नहीं, इस हेतु, इसमें शर्करा मिलाकर रखते हैं । अम्लिका द्वारा प्राप्त अम्ल (निन्तिड़िकाम्ल) अर्थात् टाछुरिक एसिड (Tartaric acid) भी डॉक्टरी चिकित्सा में व्यवहत है। प्रस्तु, देखो-एसिडम टार्टारिकम् । यह दोनों ही उन चिकित्सा प्रणाली में प्रॉफिशल हैं। इनमें से प्रथम अर्थात् इमली के फल के गूदे का यहाँ धर्णन किया जाता है। __मिश्रण-यूरोप में कभी कभी इसमें ताम्र चूर्मा का मिश्रण कर देते हैं। __ यह पड़ती है-कन्फे विरायो सेनी के ७५ भाग में भाग । . प्रभाव-लैकोटिह (कोष्ठमृदुकर ) तथा
रेगिरजेरण्ट (शैत्यकारक)। मात्रा- से १पाउंस वा अधिक
प्रभाव तथा उपयोग अकेले इसका कचित ही उपयोग होता है। एक प्राउंस की मात्रा में यह कोष्ठ मृदुकर है। इससे श्रान्तीय कृमिवत् श्राकुञ्चन की वृद्धि होती है । इन्सको शैल्यकारक बतलाया जाता है और टैमरिगड (Tamarind whey) या अम्लिकावारि रूप में कभी कभी ज्वरों में इसका उपयोग किया जाता है। विधि-थोड़े गरम पानी में २॥ तो० इमली का गूदा मिलाकर फांट प्रस्तुत कर उसमें चौथाई दुग्ध मिलाएँ। वानस्पतिक, सेव और निम्बुक प्रभुति अम्लों की विद्यमानता के कारण इसका शैत्यकारक प्रभाव होता है।
अन्य मत ज्वर में इमली का पसा (अमिलकापाम) देने से तृषा कम हो जाती है और किसी प्रकार चित्त को शांति लाभ होता है । बालकों के मलावरोध में इसका मुरब्बा बिशेष रूपसे लाभदायक होता है। ( म० अ० डॉ० २ भा०)।
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