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अरिष्टः
अरिष्टः arishrah-सं० पु. (१)रीठा अरिह arishta-हि० संज्ञा पु० )
(डी) का पेड़, फेनिल, निर्मली, रीडा वृक्ष, रीछा करज-हिं० । रिटे गाछ-धं । Coapberry plant (Sapintlus trifoliatils.) रा०नि००६। मे० । गुरु-रीठा पाक में कटुक (चपरा), तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, लेखन, गर्भपातक, स्निग्ध तथा ब्रिदोषघ्न है और गृहपीड़ा, दाह तथा शूल नाशक है। चै० निघ० । ( २ ) रसोन, लसुन, लहसुन | CGarlic (Allitim Sativum. ) प० मु. । रा०नि० २०२३ । वा० सृ० १भा०। (३) निम्ब वृक्ष, नीम । 'The neomb tree (Melia a zail-dirachtil.) i tra fão व० २३ । प० मु०। चा० सू० १५ १० । गुडूच्यादि । “गुड ची पाकारिष्ट-" च० द० पित्तश्लेष्म ज्व० श्रमताष्टक-~~| "गुडबोन्द्रयवारिष्ट-" सु० सू०४३ अ. संशोधन । ..( ४ ) काक, कौश्रा । (A crow.) हारा। (५) क पक्षी, मांस भक्षी पक्षी, गिद्ध । ( A ! vulture o, heron ( Ardea lorra and putea.) (६) सुरा विशेष । औषध ! को जल में कथित करके पुनः उसमें मी श्रादि छोड़ संधान करने से सिद्ध किए हुए मय की अरिष्ट संज्ञा है। कहा भी हैअरिष्टः क्वाथ सिद्धः स्यात् ।
(प० प्र० ३) स एव क्वधितोषधैररिष्टः । वा० टी० हेमाद्रिः। क्वाथ सिद्धो वारिष्टः । शाङ्गः ।
इक्षुविकार सहिताभया-चित्रक-दन्तीपिम्पल्यादि-भूरि भेषज क्वाथादि संस्कारवारिष्टोऽभिधीयते । राज० ।
पक्वीप वाम्बुसिद्ध यत् मद्य तत्स्यादरिष्टकम् । भा० पू० मद्य० व० । विविध प्रकार की ओषधियों को भली प्रकार सुरा वा मद्य में डुबो कर सप्ताह बाद रस को |
परिस्रावितकर उसे बरसे छानले । इसको भिषक् गण अरिष्ट नाम से अभिहित करते हैं | यथा___ "प्राप्लाव्य सुरया सम्यक् द्रव्याणि विविधानि च। सप्ताहान्ते परिस्राव्य रसं वस्त्रेण गालयेत् । एषोऽरिष्टोऽभिधानेन भिषग्भिः परिकीर्तितः।" (अत्रि.)
नोट-इसी विधान से एलोपैथी चिकित्सा में वर्णित सम्पूर्ण टिंक चर प्रस्तुत किए जाते हैं। अस्तु, पासवारिष्ट का टिंकचर के पर्याय रूप से प्रयोग करना यथार्थ है।
अरिष्ट निर्माण विधि-(प्राचीन) यह साधारणतः मिट्टा के पात्र में ही प्रस्तुत किया जाता है; यद्यपि किसी किसी स्थान पर स्वर्ण पात्र में भी संधान करने का नियम है । जिस पात्र में अरिष्ट (श्रास ) तैयार करना हो, प्रथम उस पात्र की भीतरी दीवारों में अच्छी तरह घी लगा देना साहिए। और साथ ही धन पुरुष तथा लोध्र के कल्क का लेप करके सुखा लेना चाहिए । एवं उपयुक्त विधिसे पात्र तैयार करके उसमें क्या थेत या कच्चा जल में मिश्रित गुड़, मधु और औष. धों का चूर्ण श्रादि डालकर उसके मुख को शरावे से अच्छी तरह बन्द करके उसके ऊपर कपड़ मिट्टी कर देनी चाहिए । जिसमें किसी स्थान से वायु उसके अन्दर न जा सके अब इस बर्तन को भूमि के अन्दर गढ़े में या किसी अन्य गरम स्थान में १५ दिन या । महीने या जैसी शास्त्राज्ञा हो रक्खे रहने देना चाहिए । __इसके बाद अरिष्ट या प्रासय को निकाल कर अच्छी तरह छानकर बोतलों में भर कर डाट लगादें, जिसमें उस बोतल के अन्दर वायु न जा सके, क्योंकि हवा जाने से शुक्र बन जाता है । जिस बोतल में रक्खे उसे थोड़ा खाली रक्खें; क्योंकि मुह तक भर देने से अरिष्ट जोश खाकर बोतल को तोड़ सकता है । यह जितना ही पुराना हो उतना ही अच्छा है। प्रत्येक मयों से श्रेष्ट अरिष्ट ही होता है। परिष्ट के नध्य निर्माण-क्रम एवं पासवारिष्ट अर्थात् मद्य की विस्तृत व्याख्या के लिए देखिए-आसव ।
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