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अम्खुदा
बर्वती अन्य ती xvvati-सं० स्त्री० वड़वा । कुम्भ !
दासी । मे० तत्रिका अर्धा,-न् alra,-1-सं० पु० अश्व (A hori ____rse.)। भा० पू०। अखुदः artvutah -सं० ए० की ! प्रवुद: arbudah । (१) पुरुष ।
(२) दशकोटि परिमारण ! मे० दत्रिकं । (३)। मांसकोलकाकार रोग विशेष । देखा-अर्बुद ।। रसौली, बतौरी (डी), अबु (बु ! द-हिं। व्य मर ('I'lumour.)-इं० । जदरह. , सलअह् । वर्म-अ० । प्रान्-ब ।
आयुर्वेद के मत से प्रबुद एक प्रकार की . मांस की गाँड़ है जो वातादि दोषों के पित, होकर मांस और रक को दूपित करने से शरीर : के किसी भाग में हो जाया करता है। यह गोल स्थिर, मंद, पीडायुक, अति स्थूल ( यह ग्रंथि से बड़ी होती है), विस्तृत मून्त युत, बहुन काल में पढ़ने वाली और नहीं पकने वाली होती है। वातज, पित्तज, कफज, रज, मांसज और मेदज भेद्र से ये छः प्रकार के होते हैं। इनके लक्षण : सदा ग्रंथि के समान होते हैं। (किसी किसी ने । द्विरयु'द और अध्यक्षुद इन दोनों को सम्मिलित
कर इसके प्राउ भेद माने हैं)। . गात्र प्रदेशे क्वचिदेव दोषाः
संमूञ्छिता मांस मभि प्रदृष्य । वृत्तं स्थिरं मन्दरुज महान्त
मनल्पमलं चिरवृद्धयपाकम् ॥ कुर्वति मांसाच्छ, यमत्य गाध
तबुदं शास्त्रविदो वदन्ति । वातेन मित्तेन कफेन चापि
रक्तेन मांसेन च मेदसा च ॥ तज्जायते तस्य च लक्षणानि ग्रंथेः समानानि सदाभवन्ति ।
मा० नि । सु०नि० ११ १०। भक्षुद के उपयुक भेदों में से रखावुद और मांसावुद मुख्य हैं। इनमसे प्रत्येकका यहाँ पृथक् । पृथक् वर्णन किया जाता है।
रक्ताद दोषः प्रदुष्टो रुधिरं शिरास्तु
संपीड्य संकोच्य गतस्तु पाकम् । सानावमुन्नत मांसपिण्डं
मांसाङ्करैराचिनमाशु वृद्धिम् ॥ स्रवत्य जन विरं प्रदुष्ट
ममाध्यमे नद्रुधिरामकं स्यात् । रक्तक्षयोपय पीडितत्वात् ___ पाण्डुभवेदधुंद पोडितस्तु ।।
मा०नि० । सु०नि०११ प्रक। अर्थ-दृषित हा दप रुधिर की शिराओं को संकुचित कर उनको इकटा कर मांस के गोला को प्रकट कर देता है। वह कुछ पकनवाला तथा कुछ बहने वाले मांग के अंकरों से व्याप्त एवं शीघ्र बढ़ने वाला होता है। उसमें से सदा रुधिर बहा करता है यह बाद असाध्य है। यह रावुद रोगी राय के उपद्रवी से पीड़ित होने के कारण पीला हो जाता है। ये रकावुद के लक्षण हैं।
मांसावुद (Cancer) मुष्टि प्रहारादिभितेऽङ्ग
मांसं प्रदुष्टं प्रकराति शाफम् । अवेदनं स्निग्बममन्यवर्ण
मपाकमश्मापममप्रचाल्यम् ॥ प्रदुष्ट मांसस्य नरस्यबाद
मेतद्भवेन्मांस परायणस्य । मांसाचुदं त्वेतदसाध्यमुक्तं साध्येचपीमानि तु वर्जये।
मा०नि० । सु०नि०.११०। अर्थ - मुक्का वा धूसा प्रादि के लगने से शरीर में जो पीड़ा होती है उस पीड़ा से मांस दूषित होकर सूजन को उत्पन्न करता है। यह सूजन पीड़ा रहित, चिकनी देह के रंग के समान होतो है, इसका पाक नहीं होता और यह पत्थर के समान स्थिर होती है। जिस मनुष्य कर सोस
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