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भश्वतरः
पाखी
अश्वतर: ashvatarah-सं० पु. ती अश्वतर ashvatara-हि० संक्षा
अश्वतरी] (१)अश्वखरज, खच्चर, घोड़ी और गधे से उत्पन्न जीव । खच्चोर घोड़ा-ब० 1 (A mule or donkey) सु० अ० ४६ ।
गुण-इसका मांस वल्य, वृंहण और कफ पित्त कारक है। मद०व०१२।
(२) एक प्रकार का सर्प। नाग-राज। अश्वतृणम् ashvatrinam-सं० ली. पाषाण
मूली । घोड़ाघास-हिं० । उश्वुलनील-श्न.. ।
( Collinsonia. ) देखे:-पृ० ७८३ अश्वत्थ: ashvitthalh-सं० पु० । अश्वत्थ shrattha-हिं० शा दु' ।।
(प० मु० । सु० सू० ३० प्र० न्यग्रोधादिध.) पीपल, पि(पी)पर-हि०, मह०, गु०, पं०, | बम्ब० । फाइकस रेलिजिमोजा ( Ficus re+ ligiosa, Linn.)-ले। दी सेक्रेड ट्री ( The sacred tree ), staat (The peepal tree)-501 फिगोर -श्रो मा देस पैगोडेस Figu-ier ouarbre des pagodes (Ou de Dreu ou Conseils)-फ्रां। रेलिजि भोजर फोगेनबॉम(Religioser Fiegenbaum) -जर.1
संस्कृत पर्याय--केशकाल यः, चैत्यदुः(त्रि०), बोधितरुः, कृष्णावासः (हे), चैत्यवृत्तः (र), नागबन्धुः, देवात्मा, महामः (श), कपीतनः (मे), बोधिद्रमः, चलदना, पिप्पलः, कुञ्जराशनः (8), अच्युतावासः, चलपत्रः, पवित्रका, शुभदः, बोधिवृक्षः, याझिकः, गजभसकः, श्रीमान्, तीरद्रुमः, विप्रः, मंगल्यः, श्यामलः, गुह्यपुष्पः, सेव्यः, सत्यः, शुचि मः, धनुषः, गज भच्या, गजाशन:, शीरद्रुमः, बोधिनुः,धर्म वृक्षः,श्रीवृक्षः । माशुद् गाय, प्रशोधगाछ, अश्वस्थ, अस्चतबं० । मुर्तमश-१०। दरात वरों, पीपल -फा० । सुही-उ० । अरस, अरश मरम्, अस्वर्थम्-ता० । राई (वि)चेष्टु, कुलुम्विचेस, राई, रैग, रावि, कुलराधि, रागी-तै० । रंगी,
बस्त्री, अरक्षी, प्ररले नेसपथ, रागी, अस्वल, अरशेमर, अश्वत्थमर-कनापिपल, पीपल्लो • मह । पिम्पल-मह, वो । परली-का० । पिम्पल, पिप्लो, पिपुर, पिपुल-वस्थ० । पीपल, भोर-पं० । पिपुल-गु.। हिसार, पीपर-- दोल। हिसाक स.न्ता जाऊ-उडि० । बोरबर-छा० । पिप्ली-नेपा० । प्रा(अलीगो। पेपी-काकु । पोपल को पेडमारवा० । अरशम्मरम् द्रावि०।
न.ट-इसका एक छोटा भेद है जिसको पीपली कहते हैं। इसके पत्र छोटे होते हैं ।
अश्वत्थ वा बटवर्ग (... O. Urticuceae.) । उत्पत्ति-स्थान-सम्पूर्ण भारतवर्ष और (यंम प्रदेश, मध्य प्रदेश ) हिमालय पाद । __ वानस्पतिक-वर्णन -अश्वत्थ एक तम छाया वृक्ष है । पीपल के पक्य फल को पक्षीगण खाकर जब बीट करते हैं तब उसमें साबित बीज निकलते हैं। इनमें जननोपयोगी बीज किसी धूप वा दीवार पर गिर कर मिट्टी का सहारा पाकर अंकुरित हो जाते हैं। प्रस्तु, प्राचीन गृहों की दीवारों तथा वृक्षों पर भी पीपल के वृक्ष दृष्टिगोचर होते हैं । चैत्र में अश्वत्थ वृक्ष पत्रशून्य होता है और प्रायः ग्रीष्म ऋतु में नवीन पत्रों से सुशोभित होता है । इसके वृक्ष अत्यन्त वि. शाल एवं बहुशास्त्री होते हैं । पत्र गोल अंडाकार सिरे की और लहरदार हृदाकार, पत्रवृन्त दीर्घ एवं वीण, पत्राग्रभाग क्रमशः सूचम होता हुमा धर्दित, पत्र का लम्बा होता है। फलकोष (कुरा ) कहीय, युग्म, वृन्त रहित, संकुचित, मटराकार (वा उससे वृहत् ), प्रीष्म ऋतु में फल लगते और प्रावृट में परिपक्व होते है । पक्यावस्था में बैंगनी रंग के होते हैं। पीपल के काटने और तोड़ने से उसमें से एक 'प्रकार का रसदार श्वेत रस निर्गत होता है जिसे पीपल का वृक्ष कहते कहते हैं। इसी कारण इसका एक माम "धीर. मम" है और इसकी खीरी वृक्षों में गाना
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