Book Title: Aayurvediya Kosh Part 01
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 844
________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अंसार असारू असार aasara -१० भेड़िया । (A | मसारह aasarah , wolf.) असार राई asara-rai-अअ बार । (Polygo- ! num bistorta.) प्रसार इधि asara-dadhi-सं० को नवनीत अर्थात मक्खन निकाले हुए दूध से जमाया हुआ दही। गुरग-प्रसार दधि ग्राही, शीतल, वातकारक हलका, विष्टम्भी, दीपन, रुचिकारक तथा ग्रहणी रोगनाशक है । भा० पू. दधि ३० । असारयका, कामन asara bacca-comm. on-० असारून, तगर । असारा asara-सं० स्त्री० कदली वृक्ष, केला।। Plantain ( Musa sapientum. ); वै. निघः । असारून asārun-अ०,सि. सगर भेद, पारसीक सगर । तुक्किर-हि. | (Asarun Ellori peum.) हीवेर वा जटामांसी (...0. Valerionee.) उत्पत्ति-स्थान-फारस, अफगानिस्तान तथा भारतवर्ष । भारतवर्ष में इसका श्रायात अफगानिस्तान से होता है। नोट-तगर, हांवेर तथा जटामांसी प्रभृति एक ही वर्ग की प्रोपधिया है और परस्पर इनमें बहुत कुछ समानता है । अतएव कतिपय ग्रन्धों में इसके निश्चीकरण में बहुत भ्रम किया गया है। इसके पूर्ण विवेचन के लिए देखो-तभर या होवेर। वानस्पनिक-वर्णन यह एक बुटी है। जिसके पत्र लबलाब अर्थात् इश्कपेचा के पत्र के समान होते हैं । भेद केवल यह है कि इसके पत्र द्वतर एवं अतिशय गोल होते हैं । इसके पुष्प नीत वर्ण के, पत्तों के बीच में जड़ के समीप होते हैं। इसके बीज बहुसंख्यक और कुसुम्भ बीजवत् होते हैं। इसकी जड़ें सीण, ग्रंथियुक्त और सुगंधि. युक्र होती हैं। (औपत्रों में यह जड़ ही काम में माती है)। प्रकृति-द्वितीय कक्षा के अंत में उप्य व रूत है। किसी किसी ने तीसरी कक्षा में उष्ण एवं द्वितीय कक्षा में रूस और किसी ने तीसरी कक्षा में रूक्ष लिखा है। स्वरूर-पीताभ । स्वाद-तीक्ष्णतायुक्र वा बेस्वाद । हानिकर्ताफुप्फुस को । दर्पघ्न-मवेज़ मुनक्का । प्रतिनिधिकुलिअन एवं शुठि । मात्रा-५माशे । प्रधानकर्म-मस्तिष्क बलप्रद और शीत प्रकृति को ऊपमा प्रदान करता है। गुण, कर्म, प्रयोग-इसमें काफी उष्मा होता है। अतएव यह यकृदावरोधोद्धारक है। यह प्लीहा कालिन्य को दूर करता है। कयोंकि अ. पनी उष्णता के कारण यह उसकी सहती के माहे को घुलाता है। इसी हेतु पुरातन कूल्हे के दर्द (बजउल वरिक ) एवं वात-तन्तुओं के शीत जन्य रोगों को लाभप्रद है। मूत्र एव प्रात्तव का प्रवत्त न करता है, क्योंकि इसमें दायक (तल . तीफ़ ) एवं बिलायन ( तह लील ) को शनि पाई जाती है । ( नफ़ो.) यह तारल्यताजनक है एवं ऊष्माको बढ़ाता है तथा शोध एवं वायुको लयकर्ता, मस्तिष्क, श्रामाशय, यकृत, वातन्तुओं, पीहा एवं वृक्ष को बल प्रदान करता है। पित्तज एवं श्लेष्मज माहा को मल द्वारा उत्सर्जित करता तथा जीण ज्वर को दूर करता और मूत्र व प्रात्तव की प्रवृत्ति करता है। म. मु.। उपयुक्र औषधों के साथ वा अकेले इसका पीना अपस्मार, अहित, पक्षाघात, इस्तरता ( वातग्रस्तता ), श्लेष्मज आक्षेप, प्रसन्नता, मस्तिष्क एवं योधक तन्तुश्री की उष्णता एवं शनि के लिए हितकर है । गर्भाशय सम्बन्धी शिरःशूल एवं विस्मृति को लाभप्रद है । प्रान्त. रिक शल प्रशामक, जलोदर, अवरोध जन्य पांडु, यकृत् एव पीहा शोथ के लिए उत्तम, गर्भाशयशोधक एवं मूत्रावयव, वृक्काश्मरी तथा वस्त्य. श्मरी को लाभप्रद है। श्रात्तव एवं मूत्ररोध, संधिबात पावशूल, गृध्रसी, और निकरस को लाभप्रद है। बकरी या ऊँट के दूध के साथ शीत For Private and Personal Use Only

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