Book Title: Aayurvediya Kosh Part 01
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 857
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्थिसंहारः .. .. अस्थिसंहारः . में उक पौधे के वण न देने का कारण यह है कि टिप्लिकेनमें एक श्रादमी जोकि चिरकारी एवं हठीले (Obstimate) अजीण से चिरकाल से पीड़ित था १० दिवस तक उऋ. मुरब्बाके सेवन के पश्चात् वह बिताकुल रोग मुक्त होगया । (मे० मे० .. हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को। दपन--धुत। प्रतिनिधि--जीक की पित्ती। .. प्रधान क.म-सबल भग्नास्थिसन्धानक ।। मात्रा-२ मा० । । गुण, कर्म, प्रयोग-प्राचीन यूनानी ग्रंथों में हड़जोइका उल्लेख नहीं पाया जाता । अर्वाचीन | लेखकों ने अपने ग्रंथों में जो इसके संक्षेप वर्णन दिए हैं वे केवल श्रायुर्वेदीय वर्णन की प्रति । 'लिपि मात्र है। वनस्पति विषयक कतिपय उदू ग्रंथों में लिखा है कि "प्रायः गुणों में यह गु.डुनी। के समान है। परन्तु यह परीक्षणीय है। इससे पारद की भस्म बनती है। चु० मु० । म० मु०। नव्यमत मोहीदीन शरीफ़--इन्द्रिय व्यापारिक कार्यप्रामाशय बलप्रद (पाचक ) तथा परिवर्तक (रसायन ) । उपयोग-अजीण में इसका लाभदायक प्रयोग होता है । औषध-निर्माण-मुरब्बा-नवीन तथा कोमल कांड के छोटे छोटे टुकड़े करें और प्रत्येक टुकड़े को को चनी से कोच डाले (जिस प्रकार मामला का मुरब्बा बनाते समय अामलों को एक विशेषयंत्र द्वारा कोंचते अर्थात् उसकी चारों और गम्भीर छिद्र कर डालते है । पुन: उन टुकड़ों को जल में कोमल होने तक कथित करें' । इसके बाद पानी को फेक दे और टुकड़ों को हलके हाथों से • निचोड़ ले । फिर उनको चूणोदक बा १ ड्राम (३॥ मा०)से ४ पास पर्यन्त कार्बोनेट श्रॉफ सोडा विलीन किए हुए जल में क्वधित करें और पूर्ववत् तरल को फेंक दें। इस क्रम को दो तीन बार और काम में लाएँ अथवा इस . फ्रम.. को तर तक दोहराते रहें जब तक कि वे किसी ..प्रकारको चरपराइटसे शून्य एवं कोमल न होजाएँ।। तदनन्तर उनको स्वच्छ उष्ण जल से धोकर और कपड़े से पोंछ कर शर्करा के साधारण शर्बत में | डाल कर सुरक्षित रक्खें। सप्ताह पश्चात् यह प्रयोग | में लाने योग्य हो जाएगा। मात्रा-२ से ४ डाम तक २४ घंटे में २ या ३बार । डॉक्टर महोदय लिखते हैं कि इस ग्रंथ - डोमक-इसके ताजे पत्र एवं काण्ड का कभी कभी शाक रूप से व्यवहार होता है । पुरा. तन होने पर थे चरपरे हो जाते हैं तर इनमें प्रौषधीय गुण धर्म होने का निश्चय किया जाता है, फा० ० १ मा०। ऐन्सला लिखते हैं कि तामूल चिकिरसक अग्निमांद्य जन्य कतिपय प्रान्त्र रोगों में इसके शुक कार के चूर्ण का व्यवहार करते हैं। ये सशक्र परिवर्तक माने जाते हैं और लगभग २स्क्रप्ल २॥ मा०)की मात्रामें इसका चूर्ण किचित् तण्डुलोदक के साथ दो बार दैनिक व्यवहार में श्रा सकता है। फोस कहल ( Forskahl) वर्णन करते हैं कि मेरुदंड विकार से पीड़ित अरब लोग इसके कांड की शय्या बनाते हैं। कर्ण त्राव (पूति कण') में इसके कांड स्वरस द्वारा कर्ण पूरण करते हैं तथा नासार्श वा 'नासासाबमें इसे नासिकामें टपकाते हैं। अनियमित ऋतुदोष तथा स्की के लिए भी यह प्रख्यात है। प्रथन रोग में २ तो. म्वरस (पौधे को उष्ण करके निकाला हुश्रा), २ तो० घृत और १-१ तो. गोपीचन्दन (श्वेन मृत्तिका विशेष ) तथा शर्करा में मिलाकर दैनिक उपयोग में श्राता हैं। फा० ० १ भा० । मे० मे० ऑफ ई० आर० एन० खीरी। बैल्फर ( Balfour ) राजयक्ष्मा में इसके कांड का कल्क व्यवहृत होता है । आर. एन खं रो-अस्थिसंहार रसायन तथा उत्तेजक है । यह अजोण, अग्निमांद्य एवं स्क रोग में व्यवहत होता है । प्रार्द्र अस्थिसंहार को पीसकर अस्थि विश्लेष, अस्थिभग्न किम्वा क्षत पर प्रलेप करते हैं । ( Materia For Private and Personal Use Only

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