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भावगंधी
अश्वगंधा
मावानुसार प्रस्तुत असगन्ध के क्वाथ में किञ्चिद का नामोल्लेख भी नहीं । सुश्रुतोक्त वातव्याधि गोमूत्र का प्रक्षेप देकर, ऋतुस्नान की हुई बनाया चिकित्सा के अन्तर्गन अश्वगंधा का नामोल्लेख वाला (नारि) इसका पान करे। यह गर्भप्रद है। रष्टिगोचर नहीं होता । घरक में अश्वगन्धा यथा
का बश्यवर्ग में पाठ आया है। "काथेन हयगन्धाया: साधितं सवृतं पयः।
यूनानो मतानसारऋतुस्नाता वाला पीस्वा धरे गर्भन संशयः ॥” |
प्रकृति-उष्ण वरून २ कक्षा में (पिग्छिन (योनिव्यापश्चि)
पार्द्रता के साथ )। हानिकर्ता-उम्ण प्रकृति (४) बालकके काय गेगमें अश्वगन्धा
को । दर्पघ्न-कतीरा आवश्यकतानुसार । प्रतिकृश शिशु के शरीरकी पुष्टि हेतु दुग्ध, घृत, तिल निधि-समान भाग बहमन सफेद ( वा मधुर फूट तैल, किम्वा ईपदुष्ण दुग्ध के साथ असगन्धकेचूर्ण तथा सूरिजान )। मात्रा-४ से ६ मा०। का सेवन कराएँ । यथा--
प्रधान कर्म-कामशक्रिय तथा कटिशूल के "पीताऽश्वगन्धा पयसाईमासम् ।
लिए हितकारक है। घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा ।
गुण, कर्म, प्रयोग-कास, श्वास तथा प्रव. कृशस्य पुष्टि वपुषो विधत्त ।
ययों के शोथ को लाभप्रद है। शरीर, काम, कटि वालस्य शस्यस्य यथाम्बुवृष्टिः॥"
और गर्भाशय को शक्रि प्रदान करता, रमेष्म ( रसायनाधिकार)
विकार को शमन करता और प्रामवात (गठिया) मात्रा-अवस्थानुसार ।
के लिए कटु सूरिआन की प्रतिनिधि है। (निर्विभावप्रकाश-दृदयगत वायु रोग में अश्व- |
पैल ) म. मु.। गन्धा--वायु के हृदयगत होने पर असगन्ध को उध्ण जल के साथ पीस कर सेवन कराएँ। ।
" . नोट-यूनानी ग्रंथों में असगंध के गुणधर्म
प्रायः आयुर्वेदीय ग्रंथों की नकल मात्र हैं। यथा--".पवे?ष्णाम्भसा पिष्टामश्वगन्धाम ।"
_ नव्यमत (म० ख०२ भा०) चंगसेन--निद्रानाश रोग में अश्वगन्धा--
असगंध वल्य, रसायन एवं अवसादक है।
असगंध की जड़ का चूर्ण दुग्ध किम्बा घृत के अश्वगन्धा चूर्ण को गांवृत तथा चीनी के साथ
साथ बालकको सेवन करानेसे वह पुष्ट होता है। चाटने से नष्टनिद्रा वाले को नींद पाजाती है।
अश्वगन्धा का रसायन रूपसे खण्डमोदकादि रूप यह परीक्षा सिद्ध है। यथा--
में जराकृत दौर्वत्य तथा वातरोगों में व्यवहार .. "चूर्ण हयगन्धायाः सितया सहितञ्च सर्पिपा
करते हैं। चातज दौर्बल्य एवं प्रदर में एतलोढम् । विदधाति नष्टनिद्रे निद्रामरावेव सिद्ध :
हेशीय रमणीगण प्रयान्य बहुपोषक द्रष्यों के मिदम् ॥” (जल दोषादि योगाधिकार)
साथ अश्वगन्धाका उपयोग करती हैं। अश्वगंधा वक्तव्य
के पत्र को एरण्ड तैलमें सिक्त कर स्फोटकादि के - जिन दस्यों के बाद रूप में प्रयुक करने की ऊपर स्थापित करने से वह अंग सुप्त हो जाता विधि है "सदैवार्दा प्रयोकव्या" उनमें से | है अर्थात् तत्स्थानीय स्वक् स्पर्शज्ञान रहित हो असगन्धभी एक है। असगन्ध कच्चे अर्थात् गीले जाता है । बधिरता में नारायण तेल (जिसका रूप में ही व्यवहत होता है। चरक की बात- अश्वगन्धा एक उपादान है) का नस्य एवं न्याधि की चिकित्सा के अन्तर्गत अश्वगन्धा के पक्षाघास, धनुस्तम्भ, वात एवं कटिशूल में इसका काथ में तैल पाककर व्यवहार करने का उपदेश अभ्यंग और प्रामरक्रातिसार (प्रवाहिका)विशेष है ("कल्पोऽयमश्वगन्धायाः"-चि० २८०), एवं भगंदर में इसका अनुवासनवस्ति ( Eneपर पतीय चिकित्सा के अन्तर्गत अशवगन्धा ma) रूप से प्रयोग करते हैं। शिकार,
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