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अत्रपीडन
अवयंवी
के नस्य कर्मों में से एक । शोधन और स्तम्भन अपभ्रटः avabhatah..सं० वि० नतनासिका भेद से यह दो प्रकार का होता है। निचोड़ कर वाला, चिकिन । ( Plat-nosed.) श्रम । अर्थात् रस निकाल कर प्रयुक्त होने के कारण |
प्रयुक्त होने के कारण | अयम् avam-हिं० वि० [सं०] (1) नीच, अथवा रोगी के नकुत्रों में टपकाए जाने के कारण
fälza ( Low, vilo, inferior. ) इसको अवपीड कहते हैं। यथा--"अवपीड्य ।
(२) अधम । अंतिम । (३) रक्षक । दीने यस्मात् श्रवपोइस्ततः स्मृतः अथवः श्रव.
श्रयमन्थःvananthah-सं० ) पीड्यते यस्मात् स श्रवपीड़।" तीक्ष्ण प्रोपधियों
श्रवमन्थक: avamanthakah " का कल्क कर उसे निचोड़ कर रस निकाले । इसे : अवमन्थ avamantha-हिं० संज्ञा पु श्रवपीड करते है। यह गले की बीमारियों में प्रशस्त एक रांग जिसमें जिग में बड़ी बड़ी और घनी है। प० प्र०४ ख. जो छींक लाने वाली . फुसियाँ हो जाती हैं।
औषध कल्कादि से बनाई जाती है परन्तु उसमें ! . लक्षण-जिसमें बड़ी बड़ी बहुत सी फुसिया बीच स्नेह नहीं निजाया जाता है, उसे अपीड़ वा से फटी सी हो जाएँ उसे "अवमंथ" कहते हैं । शिरोविरेचन कहते हैं । यथा-"ककाघरव गोडस्तु यह रांग कफ और रक के विकार से होता और तीर्ण म बिरेवनः ।" वा० सु०१६ ! वेदना तथा रोम हर्प करने वाला होता है। गले के संग, सनियात, निद्रा, विषम ज्वर, मनो। सु० न० १४०। विकार ( मद, मूळ, अपस्मार, सन्यास, ! (२) कर्णपाली रोग भेद । सु० सू० १६ उन्माद और भूतोन्माद अादि )और कृमि अर्थात् ,
श्र०। नाक में कीड़े पड़जाने (वा कृमि जन्य रोगा) में | अवीटनं नस्य का प्रयोग किया जाता है। अवमनाथ avamnmiya-हिं० वि० जो वामक निघ. नस्य चि। विशेष देखो-नस्य
न हो अथवा जो मन को रोके । श्रवपाडन avapidana-हिंप'. ) अवअचमहान avamaratin-am--स० ) श्रवपीडनम् avipidanam-सं० क्ली० पीड
पु., कला
श्रयमदन : vamardana-हिं. संज्ञा पु. ) नामक नस्य विशेष।
पाड़न । वेदना । दुःख देना । दलन । अम० । अवधार, yahaka-हिं. संज्ञा पु
(Sce-Pidanam.) पीड़ा पहुँचाना । भवबाहक: ava bahukar-सं०
एक रोग जिससे हाथ की गति रुक जाती है । भुज । अवमोटनम् avamoranam--सं० क्ली०
स्तंभ । देखो-अपबाहुकः ( Apabalhukah ) ग्रामोदन । मा०नि० वा० च्या ।।। अवमासिका,नीavabhāsika,-li-सं० ली।
अवम्भिसीम avanbhison --सं० काजी, सात वनाओं में से एक त्वचा विशेष । यह प्रथम
काजिस । (-ee-kānjka. ) अर्थात् सबसे ऊपर ( शरीर के बाहर ) की त्वचा अवयवः a vayavah सं०प० । शरीहै और समस्त वर्णों (कणाता. गौताहिक अवयव avayavit-f० संज्ञा प रावयव, प्रकाश करती है तथा वहीं पाँच प्रकार की पाँच
अंग, देह, शरीर, हस्तपाद श्रादि भाग, शरीर का भौतिक छाया तथा चकार के ग्रहण से प्रभा को
एक देश । (A limb, tu member.)। प्रकाश करती है। यह त्वचा व्रीहि अर्थात् जी के
(२) अंश । भाग । हिस्सा | (जो बीस भाग हैं उनमें )अठारह भाग के समान | अवयव स्थानम् avayuva-sthānain--सं० मोटी है यही सीप और पन्नकण्टक नामक चर्म
कलो० शरीर ( The body रोगों के होने का स्थान है अर्थात् सीप, पद्मकण्टक निघः । इसी ऊपर की त्वचा में होते हैं । सु० शा० अवयवी avayavi सं० पु. पक्षी । ( A bi. ४१०।
.) वै० निघ।
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