Book Title: Aayurvediya Kosh Part 01
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 775
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अवसन्ताजनक ७३३ thetics )-इं” । मुख दरात कुल्ली - अ० । बेहोशी पैदा करने वाली दवा - उ० । ये औषधे इस प्रकार संज्ञाशून्यता उपस्थित - कर देती हैं कि फिर किसी भाँति की वेदना का बोध नहीं होता अर्थात् सार्वदेहिक स्पर्शाजताजनक औषधों के उपयोग से मनुष्य पर पुर्ण श्रचेतता व्याप्त हो जाती है। दुख एवं वेदना का सर्वथा लोप हो जाता है तथा परावर्तित चेष्टाएँ fare हो जाती हैं । यह औषध "विकास सिद्धांत" ( इस नियम के अनुसार बातकेन्द्रों पर औषध का प्रभाव उनके विकास क्रम के विरुद्ध होता है ) तथा "पूर्वोत्तजन एवं नैर्बल्योत्तर नियम" ( इस नियम के अनुसार अल्प मात्रा में अथवा प्रारम्भ में श्रौषध का उशेजक एवं अधिक मात्रा में अथवा पश्चात् को उसका नैवल्यजनक प्रभाव होता है ) के उत्तम उदाहरण हैं। अस्तु इनके घाण कराने अर्थाद सुधाने से भावना शक्ति प्रबल हो जाती है! पुनः सस्तिष्क गस्युत्पादक केन्द्रों में.. गति होती है और रोगी स वृधि की अस्थिरता एवं विभिन्न केन्द्रों की असाधारण तथा अनियमित गतिके. कारण अनाप शाप मूर्खतापूर्ण बातें करने लगता है और हाथ पाँव मारता है। थोड़े काल पश्चात् मस्तिष्कीय शक्तियों में निर्बलता के लक्षण प्रगद हो जाते हैं, बुद्धिभ्रंश होता तथा मस्तिष्क के उच्च केन्द्रों में और अधिक गति होती है । श्रतएव हृदय स्पंदित होता, श्वासोच्छ् वास तीव्र हो जाता और स्वभार बढ़जाता है । क्षण भर बाद ये लक्षण भी श्रय हो जाते और रोगी पूर्णतः अचेत हो जाता है । सम्पूर्ण शरीर की बोध शक्ति लुप्तप्राय हो जाती, भांस पेशियाँ शिथिल हो जात एवं किसी प्रकार की चेष्टा से भी ये गतिशील नहीं होती हैं। नेत्रकनीनिका संकुचित हो जाती, नाड़ी एवं श्वासोच्छवास की गति कम हो जाती है, इत्यादि । प्रायः ऐसी ही दशा में शखकर्म सम्पादित होता है। . पर यदि जेनरल श्रमस्थेटिक्स ( सार्वागिक संज्ञाहर ) का प्रयोग असावधानतापूर्वक किया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाए तो फिर भयानक लक्षण प्रगट होने लगते हैं । अस्तु, अनैच्छिक मांस पेशियों के वातग्रस्त हो जाने से प्रायः मलसूत्रका प्रवर्तन हो जाया करता है, श्वासोच्छ् वास एवं हार्दिक गतियाँ अत्यन्त निर्बल और अन्ततः अनियमित हो जाती हैं । प्रायः श्वासोच्छ्वास अ हृदय केन्द्र के वातग्रस्त हो जाने से मृत्यु उपस्थित होती है । मूर्च्छा दूर होने के पश्चात् जब चैतन्यता का उदय होने लगता है तब जिस क्रम से मनुष्य की शारीरिक क्रियाएँ अवसित हुई थीं, टीक 'उसके विपरीत उत्तरोत्तर के उपस्थित होने लगती हैं । किन्तु औषध का प्रभाव कई घंटे तक शेष रहता है और चैतन्यता लाभ करनेके पश्चात् भी : अधिक काल तक शारीरिक पेशियों भली प्रकार कार्य सम्पादन करने के योग्य रहती है : पूर्ण: श्रचैतन्यता प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष दोनों कारणों से उत्पन्न की जा सकती है । श्रस्तु श्रप्रस्यक्ष ( Indirect ) रूप से संज्ञाशून्यता उपस्थित करने की निम्न लिखित ती विधियाँ :: :: ( १ ) शिरोधीया धमनी ( Carom ) या गर्दन कीग को दबाकर था उन्हें कर बा. दोनों पार्क के वैगस- नर्वः तथा शिरोधी या धमनी को दबा कर और इस प्रकार मास्तिक रसञ्चार को अवरूद्ध कर, जिससे वातसेखीय संवर्तन क्रिया-न्य हो जाता है, पूर्ण दिसंज्ञता उपस्थित की जा सकती है । - For Private and Personal Use Only ( २ ) रक्र की वेनासिटी (शिस सम्बन्धी प्रतिक्रिया ) को बढ़ाकर और इस प्रकार. वातसेलों की श्रोषजनीकरण क्रिया को घटा, का भी बेहोशी उत्पन्न की जा सकती है।... (३) मस्तिष्क से शोभित को शरीर के अन्य भागों में पहुँचा कर जैसे पृथ्वी पर उत्सा लेटे हुए • रोगी को सहसा उड़ाकर खड़ा कर देने से भी बेहोशी उत्पन्न की जा सकती है ! अवसन्नीन avasannina. हि०पु० अनजीमः श्रवसनीन । 0 -

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