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མཚུབ
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( १ ) उच्च द्रवणायुक्त एक सैन्द्रियकाम्ल | और फाइटॉस्टेरोल ( Phytosterol ) ।
( ४ ) एक सैन्द्रियक पुस्टर ( Ester ) जो rai द्वारा सहज में ही हाइड्रोलाइड (Hydrolysed ) हो जाता है ।
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( १ ) कतिपय रञ्जक द्रव्य, शर्करा प्रभुति । उपर्युक्र विश्लेषण द्वारा यह बात स्पष्ट होगई कि इसमें कोई ऐसा प्रभावात्मक सत्व, जो इसके हृदय अलकारक प्रभावका कारण सिद्ध हो, जिसमें एतद्देशीय जनता की महान श्रद्धा है, नहीं पाया जाता ! पृथक्करण काल में पेट्रोलियम, ईथर, मसारी और जलीय सारों से प्राप्त विभिन्न अंशों की ध्यानपूर्वक परीक्षा की गई; परन्तु खटिक यौगिकों के सिवा कोई अन्य द्रव्य जो हृदय वा किसी अन्य धातु पर प्रभाव उत्पन करें, नहीं पाए गए। रक्षक पदार्थ को वियोजित कर उसकी परीक्षा की गई, पर परिणाम पूर्ववत् रहा । अभी हाल में केंइयस ( Caius ), म्हेसकर ( Mhaskar ) तथा श्राइजक ( Tsaac ) ( १६३०) ने टर्मिनेलिया अर्थात् हरीतकी जाति के सामान्य भारतीय भेदों के द्रव्यगठन का विस्तृत अध्ययन किया, परंतु सारोव ( alkaloil ) वा मध्वोज ( Glucoside ) अथवा सुगन्धित या अस्थिर तैल (Essential oil) के स्वभाव के किसी प्रभावात्मक द्रव्य के प्राप्त करने में वे असमर्थ रहे । सम्पूर्ण १२ प्रकार की दालों को भस्म कर परीक्षा करने पर उनमें एक श्वेत, मृ.5, निर्बंध और निःस्वाद भस्म वर्तमान पाई गई । (६० ० ई० )
प्रयोगांश - स्वक्, पत्र ( तथा अर्जुन सुधा ) । मात्रा --स्वक् चूर्ण-२-६ आमा भर । साधारण मात्रा -२ तो० ।
औषध निर्माण - जुनघृतम्, अजु'नाथ घृतम्, अजुन स्वक् क्वाथ, (१० में १ ) मात्रा-आधा से १ लाउंस और स्वसू ।
अजुन के गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार जुन कला, उष्ण वीर्य, कफघ्न तथा प्रशोधक है और
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अजुन
पित्त, श्रम तथा तृषानाशक एवं वातरोग प्रकोपक है। धन्वन्तरीय निघण्टु । रा० नि० व० ६ ।
ककुभ अर्थात् अर्जुन शीतल, करेला, हृदय की प्रिय ( ), क्षत, क्षय, विष और दक्षिर विकार को दूर करता है तथा मेद रोग, प्रमेह, अणरोग एवं कफ पित्त को नष्ट करता है । मा० पू० १ भा० वटादि य० । वा० सू० १५ श्र० - न्यग्रोधादि । "जम्बू हयार्जुनकपीतन सोम वल्क।"
पार्थ (अर्जुन) क्षत तथा भग्न में पथ्य और रत्र स्तम्भक तथा मूत्रकृच्छ में हितकर है। ( राजवल्लभ ) ।
अजुनि के वैद्यकीय व्यवहार
चरक - रक्तपित्त में अर्जुन थक् -- (1) अर्जुन की छाल को रात्रिभर जल में भिगो रक् प्रातः उम्र जन ( हिम ) को या अर्जुन की छाल के रस वा छाल को जल में पीसकर किम्वा अजुन की छाल द्वारा प्रस्तुत क्वाथ के पान करने से रकपित्त प्रशमित होता है । (चि० ४ श्र० ) "घनञ्जयोदुम्बर निशिस्थिता वा स्वरसीकृता वा कल्कीकृता वा मृदिता श्रुता वा । एते समस्ता गणशः पृथग्वा रक्रं सविसं शमयन्ति योगाः” ।
( २ ) गाच्छादनार्थ जुनपत्र – अर्जुन पत्र द्वारा वण (क्षत ) को श्राच्छादित करें | यथा--"कदम्बाजुन प्रच्छादने विद्वान् x ।" ( त्रि० १३ ० ) ।
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सुश्रुत - शुक्रमेह में अजुनत्व-शुक्रमेही को अर्जुन की छाल वा श्वेत चम्पन का क्वाथ पान कराएँ । यथा शुक्रमेहिनं ककुभ चन्दन कषायं वा " ( चि० ११ अ० ) ।
वाग्भट -- मूत्राघात में अर्जुन -मूत्ररोध होने पर अर्जुन की छाल का क्वाथ पान कराएँ । यथा
"कषायं ककुभस्य बा" ( चि० ११ प्र० ) (२) व्यक में अजुव स्वांग ( यौवन freer वा मुसा ) रोग के प्रतीकारार्थ अर्जुन को पेषण कर मधु के साथ प्रलेप करें। यथा
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