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अजुन
प्रथम वाग्भट महोदय ने इस ओर हमारा ध्यान प्राकृष्ट किया । वे लिखते हैं"क्काथे रोहीतकाश्वत्थ खदिरोदुम्बराज ने *** "(चि० अ०६) . इस पाठ में वे कफन हृद्रोगी को द्रव्यांतर सहित अर्जुन के उपयोग का प्रादेश करते है। इन के बाद के पश्चातकालीन लेखकों में चक दत्त ने इसे कपाय एवं बल्य लिखा और हृद्रोग में इसके प्रयोग का उल्लेख किया |
इसकी छाल एवं तन्निर्मित औषध अपने प्रत्यक्ष हृदयोत्तेजक प्रभाव के लिए इस देश में आजतक विख्यात है। श्रायुर्वेदीय चिकित्सक हर्बल्य तथा जलोदर को सभी दशानों में इसका उपयोग करते हैं। कतिपय पाश्चात्य चिकित्सकों की भी इसके हृदारोजक प्रभाव में प्रास्था है और वे इस का हृद्य ( हृदय बल्य ) रूप से व्यवहार करते हैं। अस्तु इसकी छाल द्वारा निर्मित एक तरल सत्व डाक्टरी औपध-विक्रेताओं द्वारा उपलब्ध होता है।
परन्तु कोमन Komin (१६१६-२०) महोदय न हृदय-कपाट जन्य व्याधि विषयक २० रोगियों पर इसके स्वगद्वारा निर्मित वाधका उपयोग किया, पर परिणाम लाभ के विपक्ष में रहा । उष्णकटिबन्धीयोपधि परीक्षणालय (School of Tropical Medicine ) में जलोदरयुक्त वा तद्रहित हर्बल्य ( IFajltu 're of cardline compensation ) पीड़ित बहुशः रोगियों में इसके त्वक द्वारा निर्मित : ऐल कोहलिक एक्सट्रैक्ट की भली भाँति परीक्षा की गई। किन्तु डिजिलिस वा कैफीन समूह की औषधों के समान किसी रोगी पर इसका प्रगट प्रभाव न हुआ | रक्रभार एवं हृदय स्पन्दन की शकि पूर्ववत् ही रही। उक्क रोगियां के मूत्रोद्रेक । पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं हुआ । जो प्रभाव ... इस औषध का बतलाया जाता है वह इसमें अधिक परिमाणमें पाए जाने वाले खटिक यौगिकों - का हो सकता है जिसका संकेत प्रथम किया जा चुका है।
अजुन केयस ( Caius), म्हसकर (Afhar skar) तथा श्राइजक ( Isaac ) १९३८ ने टर्मिनेलिया जाति के भारतीय भेदों के बहुशः भिन्न भिन्न स्वरूपाकार के होने का उल्लेख किया है। इसके भिन्न भिन्न १५ भेद हैं । इस प्रकार के टर्मिनेलिया की छालों की रूपांकृति में परस्पर इतनी सादृश्यता है कि इनके भेद निर्णय करने में भूल हो जाने की बहुत सम्भावना है। भारतवर्षीय औषध विक्रेता ( वणिक् ) क्रियात्मक रूप से इनमें कोई भेद नहीं करते और वे सदा अर्जुन की अभेद संज्ञा द्वारा इन सब का विक्रय करते हैं । उक्त विद्वानों ने इनकी शुष्क निर्मल छालों को उष्ण फांट, क्वाथ एवं ऐल्कोहलिक एक्सट्रक्ट रूपमें प्रयोग कर इनके प्रभावका पृथक पृथक अध्ययन किया और परिणाम निम्न रहा
मिनिलिया (हरीतकी) की सामान्य भारतीय जातियों की छालों को स्वास्थ्यावस्था में प्रयुक्त करने पर वे या तो (१) मृदु मूल, यथा अर्जुन (Terminalian Arjuna), विभीतकी (T. belerica), (T. palli. da) बा(२) उत्तम सबल हृदोरंजक यथा टर्मिनलिया बाइलेटा ( T. Hiulatil ), टर्मिनेलिया कोरिएरिया ( T. coriacea), टमिनेलिया पाइरिफोलिया (T. pyrifolia)
वा (३) उभय मूत्रल तथा हृदय़ोत्तेजक होते - हैं, यथा अरर य वाताद (T. catappa), हरीतकी ( T. chhula), हरीतकी भेद (T. citrina), टर्मिनेलिया मायरियोका ('. myjiocarpe ), z० ऑलिवेराई ( ''. oliveri ), किजल वा किराडल (T. pahiculata) और प्रासन (T. tomeptosa).
( School of Tropical Medicille Calcuttit. ) द्वारा घोषित परिणाम से ये भिन्न है। परन्तु चूँ कि अभीतक कोई प्रभावात्मक दृष्य पृथक नहीं किया गया और केहयस (Caius) तथा उनके सहकारियों ने क्रियात्मक रूप से विभिन्न प्रकार की छालों की रासायनिक-संगठन में कोई परिवर्सन न पाया।
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