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रोचक
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से जिस प्रकार दंतहर्ष होता है उसी प्रकार देत हर्ष होना और मुख का कबैला रहना । ये लक्षण वातजारोचक में होते हैं ।
(२) पैत्तिकारोचक-वित्तको अरुचिसे रोगी का मुख तित्र, खट्टा, बेरस ( बेस्वाद ) और दुर्गन्धयुक्र होता हैं।
( ३ ) श्लैष्मिकाचक – कफ की रुचि से स्वार, मीठा, पिच्छिल, भारी तथा शीतज (मुख) और बंधा सा रहता है जिससे खाया नहीं जाता और मुख कफ से लिया रहता हैं । मा० नि० । ( दुर्गन्धयुक्र और कफ से स्निग्ध रहता है - भा० )
( ४ ) शोकादिजन्य ( वा श्रागन्तुज ) श्ररोन्त्रक - शोक, भय. प्रत्यंन्त लोभ और क्रोध, श्रप्रिय गंध से उत्पन्न हुई अरुचि में मुख स्वाभाविक अर्थात् जैसा का तैसा रहता हैं ।
(५) सान्निपातिकारांचक ( त्रिदोषज ) - इस अरुचि में रोगी का मुख वातादि जनित तिक, अम्ल और लवण श्रादि अनेक रस युक्र जान पड़ता है ।
वातादि भेद से रोचक के अन्य
लक्षण
वातज अरुचि में वक्षःस्थल में शूल के समान पीड़ा होती है । पित्तजन्य रुचि में शरीर में, हृदय में वोपने की सी पीड़ा, दाह, मोह श्रीर प्यास होती है। कफज अरुचि में कफस्त्राव होता है । त्रिदोषज अरुचि में अनेक प्रकार की पीड़ा और मन में विकलता, मोह, जड़ता तथा शोक और भयादि जन्य श्रागन्तुक प्ररुचि सब लक्षण होते हैं ।
शुधा होने पर भी जब श्राहार का सामर्थ्य न हो तब उसको रुचि कहते हैं । न खाने की इच्छा होने पर भी जब खाया हुआ अन बाहर निकल आए अर्थात् मेदा उसको स्वीकार न करे तथा अन्न व स्मरण, दर्शन, गंध एवं स्पर्शन से जिसे घृणा होजाए उसे भक्तद्वेष कहते हैं । चरक तथा सुश्रुत के मत से इन तीनों प्रकार
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अरोचकः
के रोगों का समावेश श्ररोचक शब्द के अन्तर्गत होता है, यथा
प्रक्षिसन्तु मुखे चानं यत्र नास्वादते नरः । अरोचकः स विज्ञेयो भद्वेष मतः शृणु ॥ चिन्तयित्वा तु मनसा दृष्ट्रा स्पृष्ट्रा तु भोजनम् । द्वेषमायाति यो जन्तुर्भद्वषः स उच्यते ॥ कुपितस्य भयार्त्तस्य तथा भक्त विरोधिनः । 'यत्र नाते भवेच्छुद्धा स भाच्छन्द उच्यते ॥ ॥ वृद्ध भोजः ॥ अर्थ - - मनुष्य को जब मुख में डाले हुए अर्थात् खाए हुए धन का स्वाद नहीं मिलता, वह मीठा नहीं लगता, तंत्र उसको श्ररोचक जानना चाहिए। श्रव भोष के सम्बन्ध में कहते हैं; सुनो भोजन के मन में चिन्तन करने से, देखने तथा छूने से, जिस मनुष्य को वृणा हो जाती है उसको "भक्रद्वेष" कहते हैं । क्रोधित भय से पीड़ित तथा जिसको श्रम से द्वेष हो वह और जिसकी न से श्रद्धा न हो उन्हें 'भङ्गच्छंद' कहते हैं।
चिकित्सा (सामान्य)
भोजन से पहिले लवण और अदरक मिलाकर भक्षण करना सदा पथ्य है। यह रुचिकारक, श्रग्निदीपक तथा जिह्वा एवं कंर की शुद्धि करता है ।
यथा
भोजनाओ सदा पथ्यं लवणार्द्रक भक्षणम् । रोचनं दीपनं बह्लेजिंहा का विशोधनम् ॥
॥ भा० म० खं० ॥ अथवा अदरक के रस को मधु के साथ मिला कर योजित करें। यह श्ररुचि, श्वास, कास, प्रतिश्याय और कफ नाशक है । यथा - शृंगवेररसं वापि मधुना सह योजयेत् ।
रुचि श्वासकासनं प्रतिश्याय कफापहम् ॥ ॥ भा० ॥ अथवा पक्की इमली और श्वेत शर्करा को शीतल जल में मल कर कपड़े से छान लें, फिर उसमें इलायची, लवंग, कपूर और मरिच के बारीक चूर्ण को बुरक कर पानक प्रस्तुत करें। इसके मुख में धारण करने से यह अरुचि का नाश करता और पित्त को प्रशमित करता है । ...
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