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अम्लिका
अम्लिकापानम् "प्रवाहिका में वीजके रक्त वाह्यत्वक् के चूर्ण को क्षत में इसका कवल हितकर है। इमली के बीज ड्राम की मात्रा में मोदक रूप से उपयोग में लाते श्राम वा रातिमारमें व्यवहत होते हैं। स्वयं शुष्कहैं । स्वाद हेतु इसमें तिगुना जीरा का चूर्ण भूत इमली की छाल का क्षार मूत्राम्लता तथा और पर्याप्त परिमाण में खजूर खंड डालते हैं।
पूयमेह में क्षारीय औषध रूप से प्रयुक्त होता है। इसकी छाल की भस्म का पाचक रूप से (आर० एन० खोरी, भा०२प्र. २३१)। श्रान्तरिक उपयोग होता है। हाल को सैन्धव के अमिलका वृत के वाह्यापरि त्वक् द्वारा साथ एक मृत्तिका पात्र में रखकर जला लें । जब
वनभस्म-निर्माण-क्रम श्वेत भम्म हो जाए तर चर्य कर रखें। १ से २
सर्व प्रथम इमली वृक्ष की ऊपरी शुष्क छाल ग्रेन की मात्रा में अजीर्ण तथा उदरशूल की यह को एकत्रित कर उसके छोटे छोटे टुकड़े करले, एक उत्तम औषध है। मुख एवं उन्नत के निवा- किंतु बारीक चूर्ण न करें। फिर टाट श्रादि के रणार्थ इसकी भस्म को जल में घोलकर इसका टुकड़े की एक लम्बी थैली बनाएँ। उसमें नीचे गण्डूप कराते हैं । (ई. मे० मे.)
एक अंगुल मोटा उक्र इमली के टुकजों को बिछा पार० एन० चोपग
दें और ऊपर से शुद्धबंग ( Tin ) के कण्टक इमली के बीज ( चियाँ) की बाहरी लाल वेधी पत्र के छोटे छोटे टुकड़े काटकर थोड़ी थोड़ी स्वचा प्रवाहिका एवं अतिसार की उत्तम औषध दूरी पर रख दें और ऊपर से फिर उक्र इमली के ख याल की जाती है। अतएव १. ग्रेन (५ टुकड़ों को बिछा दें। इसी भाँति थैली को पूरी रत्ता) की मात्रा में इसके बीज का चूण सम कर उसकी संधियों को भली प्रकार कस कर सी भाग जीरा व शर्करा के साथ दिन में दो सीन बार दें। पुनः कपरोटी कर सुखा लें। तदनन्तर उसे उपयोग किया जाता है । अादनी कटका में इसके गजपुट में रख अग्नि दें। स्वांग शीतल होने पर पक्व फल का गूदा अत्यन्त प्रभावात्मक को- श्राहिस्ते से फूल हुए वंग के टुकड़ों को एकत्रित मुमुकर गिना जाता है । नीबू के अभाव में करले। यह सोशम श्वेत बंग की भस्म प्रस्तुत ऐरिस्कॉब्युटिक (Antiscorbutic) गुण होगी । के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। उपयोग-सम्पूर्ण वीर्यरोगों यथा प्रमेह, (इं० १० इं० पृ०५६७)
शुक्रमेह, शीघ्रपतन और स्वप्नदोष प्रभ ति के हिन्दुस्तानी वैद्य-इमली को शीतल लिए रामबाण औषध है। यह सैकड़ों बार पाचक, साफ दस्त लानेवाली, दस्त की कब्जिायत परीक्षा में प्राचुकी है।
और घर में अत्यंत उपयोगी गणना करते हैं। . मात्रा व सेवन-विधि-१ रती से ४ रशी तक हमेली की फली के ऊपर की छाल को राख को उपयुक औषध वा अनुपान के साथ प्रातः सायं खारके साश दवा म डालते हैं। पत्तोंको सूजन पर सेवन करें। बाँधने से सूजन उतर जाती है।
अम्लिकाकन्दः amlika-kandah-सं० पु. पक तिन्तिड़ी-फल-मज्जा स्कर्वी रोग प्रतिषेधक, अम्लनालिका-म० । वै० निघः । अमहर एवं मदुरेचक है। यह ज्वर, तृष्णा, अंशु-अम्लिका(प्र)पान(क)amlikipanaka-हिं पु.॥ घात (सर्दी गर्मी ) एवं पित्तप्रधान बान्ति रोग | अम्लिकापानम् amlika-panam-संकी। में व्यवहत होती है। रेचन हेतु, यह चिरकारी
तिन्तिीपानक, अम्लिकाफल-प्रपानक, अमली कोष्ठबद्ध रोग में हितकर है। चोट लगने के का पन्ना । तेतुल पाना-बं०। कारण यदि किसी अंग में सूजन हो तो कच्ची x विधि-पकी अमली को जल में भिगोकर खूब इमली और इमली पत्र को पीसकर उष्णकर लें मलले'; उसमें सफ़ेद बूरा, मरिच, लौंग और . भौर शो थयुक्त अंग पर इसका प्रलेप करें । मुख : कपूर श्रादि डालकर सुवासित करले। इसको
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