________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अम्लपित्त
और अधोगत में अतिसार के लक्षण से इसके भेदों का निर्णय करना कठिन है । अस्तु, वैद्य को विचारपूर्वक इस रोग की परीक्षा करनी चाहिए । नीचे इनमें से प्रत्येक का पृथक् पृथक् वर्णन किया जाता है-
५३७
वात प्रकोप जनित अम्लपित्त में कम्प, प्रलाप मूर्च्छा, चिउँटी काटने की सी चिमचिमाहट ( निमिनाहट ), शरीरकी शिथिलता और शूल, श्रम्बों के आगे अँधेरा, भ्रान्ति, इन्द्रिय तथा मन का मोह और हर्ष (रोमा ) ये लचया होते हैं।
t
कफ युक्र अम्लपित्त में कफ का थूकना, शरीर का भारी रहना और जड़ता, अरुचि, शीतलता, साद ( अंग की ग्लानि, अवसान', वमन, मुख का कफ से लिप्त रहना, मन्दाग्नि, बल्ल का नाश, खुजली और निद्रा ये लक्षण होते
हैं
बात कफ युक्र अम्लपित्त में ऊपर कहे हुए दोनों के चिह्न होते हैं ।
कफ पित्त के अम्लपित्त में ये लक्षण होते (---भ्रम ( तम ), मूर्च्छा, श्ररुचि, वमन, श्राल स्य, शिर में पीड़ा, मुख से पानी का गिरना ( प्रसेक ) और मुख का मीठा रहना ।
अम्लपित्त की साध्यासाध्यता
अम्लपित्त रोग नया होने पर तो साध्य होता है, पर बहुत दिन का अर्थात् पुरातन याप्य ( चिकित्सा करने पर अच्छा हो जाता है, परन्तु जब चिकित्सा करना बन्द कर दिया जाता हैं तब उसका पुनरावर्तन होता हैं। ) और श्रहित श्राहार तथा हित प्रचार वाले पुरुष का अम्लपित्त कष्टसाध्य होता है |
इस रोग के एक बार उत्पन्न होने पर फिर इसका दूर होना बहुत कठिन है । अतएव रोग के उत्पन्न होते ही चिकित्सा करना उचित है । श्रन्यथा रोग पुराना होकर पुनः प्रायः छूटता नहीं |
चिकित्सा
अम्लपित्त में पटोल, अरिष्ट ( रीठा ), अडूसा, मैनफल, मधु तथा लवण ( सैंधव ) प्रभृति द्वारा
६८
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अम्लपित्त
मन कराएँ और निशोथ के चूर्ण को श्रमले के रस और शहद में मिलाकर विरेचन दें । ऊर्ध्वअम्लपित को वमन द्वारा और अधोगत को रेचन द्वारा शमन करें । यथा
अम्लपितु वमनं पटोलारिष्ट वासकैः । कारयेत् भवनैः क्षोत्रैः सैन्धवैश्व तथा भिषक् ॥ विरेचनं त्रिवृचर्णं मधुधात्री फलद्रवैः । ऊर्ध्वगं वमनैर्विद्वानधोगं रेवनैईरेत् ॥
भा० म० खं० ।
सा
अस्तु, वमन हेतु जल में सेंधानमक ( जरा डालकर एक पाव या आधलेर की मात्रा में गरम करके पीने के बाद गले में उंगली डालने से वमन होगा। इससे ऊर्ध्वगामी अम्लपित्त बहुत कुछ अच्छा होजाता है । अधोगामी अम्ल पित्त में सप्ताह में एक दिन वा दो दिन चौकी भर " श्रविपत्तिकर चूर्ण" चौअनी भर चीनी के साथ विरेचन के लिए सेवन करना चाहिए । अविपत्तिकर चूर्ण इस रोग की एक उत्तम औषध है । जिस दिन इसका सेवन करे उस दिन अन्य श्रीषध सेवन नहीं करनी चाहिए, स्नानआहार भी निषिद्ध हैं । शाम को साबूदाना वा बारली का सेवन करें ।
तीक्ष्ण संस्कार वर्जित जौ या गेहूं की बनी चीजें, लाजयुक ( लावा या धान की खील का सत्तू ) शर्करा वा मधु में मिलाकर पिलाने वा भूसी से साफ किए हुए जौ, गेहूँ तथा श्रामला द्वारा पकाया हुआ जल, दालचीनी, इलायची और तेजपत्र के चूर्ण मिलाकर पिलाने से अम्लपिस जन्य वमन तत्काल दूर होता है। अम्लपित्तहर श्रौषधें ( श्रमिश्रित श्र
1
अडूसा, पर्पटक ( पिचपापड़ा ), कुलत्थी, पाठा, थव, चन्दन, धान्य धमला ( रस ), नागकेशर, जीरा, करञ्ज, जम्बीर, पाटला, कदली ( फल ), ( Pyrosis ) पीतशाल, सोडियम के लवण और योग, गंधक और उसके योग, प्रातः काल त्रिफला या हरीतकी के शीत कपायों का रेचन तथा अन्य तिनं पिशहर द्रव्य जैसे गुडूची,
For Private and Personal Use Only