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अम्रकल्प
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अभ्रकहरीतकी
में प्रतिदिन दो बार २-३ ग्रेन तक शहद या पाँचो खाँसी, हृदय शूल, संग्रहणी, अर्श, प्रामताजे वासक स्वरस के साथ देने से लाभ होता है वात, सूजन, भयंकर पांडु, वात, पित्त कफ से ई० मे० मे -
पैदा हुए मृत्यु तुल्य महा वात व्याधि, अठारह अभ्र-कल्प: abhra-kalpah--सं. क्ली. अभ्र
कुष्ट इन्हें उचित पत्थ्य से यह श्रमक कल्प नष्ट की निश्चन्द्र भस्म, श्रामला, त्रिकुटा, विडंग
करता है ।बङ्ग सेन० स०रसायनाधिकारे । प्रत्येक समान भाग लेकर भागरे के रस अथवा अभ्रक गटका abhinka-guriki-सं० स्त्री. जल से दोपहर तक खरल में बारीक घोर्ट, शुद्ध पारद, शु० गंधक, शु० बिप, त्रिकुटा, भूना गोलियां बना फिर साया में सुखा लेवें। मात्रा- सुहागा, कान्तिसार भस्म, अजमोद, अहि फेन, १ मा० । गुण--इसकी १ गोली १ वर्ष तक
तुल्य भाग, अभ्रक भस्म सर्व तुल्य लेने और रोजाना खावें, दूसरे वर्ष २ गोलियां रोजाना, चित्रक के साथ में एक दिन बरल कर मिर्च इसी तरह तीसरे वर्ष ३ गोलियां रोजाना लेवे, प्रमाणा गोलियां बनावें, इसके एक मास पर्यन्त इस प्रकार तीन वर्ष पूरे होने पर यह अभ्रक का सेवन करने से संग्रहणी दर होती है। अमृ० प्रयोग पूरा हो जाता है। इस योग से ३ वर्ष में सा० । संग्र० चि०।। जो मनुष्य ४०० तो० अभ्रक खा जाता है वह | अम्रक सम्धानम् abhraka-sandhanam वनवत दृढ़ शरीर वाला होजाता है । इसके तीन -सं० क्ली० उत्तम शुद्ध अभ्रक लेकर मेढकपर्णी, ही महीने के प्रयोग से रक्तविकार, जय, असाध्य वरुण स्वक, अदरख, दर डोत्पल (डानिकुनिशाक दमा, ५ प्रकार की खांसी, हृदयशूल, संग्रहणी,
-बं०) मिी , अपामार्ग, बच,भांगरा, अजवाइन, बवासीर, प्रामवात, शोध, भयानक पांडु, वात, चौलाई, गिलोय, सुरण, पुनर्नवा, इनके रस से पित्त, कफ के रोग, और १८ प्रकार के कुष्ट दूर पृथक पृथक भावना दें। पुनः तीषण धूप में हो जाते हैं । रस० यो० सा!
शुष्क करें', पुनः इसमें गिलोय सत्व ४ तो०, अभ्रक कल्प abhraka-kalpa सं० पु
पीपल ४ ता०, और शुद्ध पारद, त्रिफला, जो अत्यन्त काला तथा अत्यन्त चिकना,
सोंठ, मिर्च, बीपल, अभ्रक तुल्य लेकर पारद काले सुरमे के तुल्य, वज्राम्र पत्थल 'प्रादि
की मूळ शहद, घृत से कर पुन: त्रिफला, दोषों से रहित शुद्ध हो ऐसे अभ्रक को
त्रिकुटा के चूर्ण से मर्दन कर उत्तम चिकने पात्र लेकर बुद्धिमान वैद्य एक १८ मिट्टी के पात्र में रख
में मुंह बन्द कर रक्खें। मात्रा--१ रत्ती । चार या पांच दिन तक कड़ा पुट देवे, इसी तरह
गुण--इसे एक रत्ती वृद्धि क्रम से भेजन के चौलाई के रस से पीस पीस कर पांच पुट पुनः
श्रादि, मध्य, और अन्त में जल तथा खट्टे रस देवे। इसी तरह पूर्वोक क्रम से श्रामला, साँऊ.
से ले, और शुद्ध घृत, दधि, दृध, मांस, मद्य, मिर्च, पीपल, और वायविडंग के योग से पीस
शाक और प्राचीन अन्न का सेवन करें तो अम्ल पीस चन्द्रिका रहित करें। पुनः जब चन्द्रिका
पित्त, संग्रहणी, अर्श,कामलाको दरकर्त्ताऔर अग्नि रहित हो जावे तो अंगूठा के अग्र भाग से पीड़ित
की वृद्धि करता है। भैप०र० संत्र.चि.। कर गोलियाँ बनाय साया में शुष्क कर रक्खें। | अम्रक हरीतकी abhsaka-hritaki-सं-स्त्री. इसमें से एक एक गोली निरन्तर वर्ष पर्यन्त अम्रक भस्म ८० सो०, शुद्ध गंधक २० तो०, खावें । दुसरे वर्ष में दो गोली निरन्तर खावे, स्वर्णमाक्षिक मस्भ २४० तो०, हरीतकी ४०० इसी तरह एक एक गोली बढ़ाकर ४०० तोले तो०, प्रामला .. तो इन सबों का चूर्ण कर अभ्रक सेवन करें तो शरीर बलवान हो और एक दिन जमीरी नीबू के रस की भावना देवें, वज्रतुल्य दृढ़ हो इसमें संशय नहीं है। इसके पश्चात् मांगरा, सोंठ, छिरहटा, सिलावाँ, चित्रक तीन महीने के सेवन से रन रोग, क्षय, भयङ्कर कुरण्टक, हाथी शुण्डी, कलिहारी, दुद्धी, जल
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