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अफसन्तीन
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जातियाँ निम्न हैं-~~( १ ) दमनक वा दौना (Artemisia Scoparia or Indica), (२) नागदमनो ( Artemisia Vul garis ), ( ३ ) शोह वा किर्माला ( Artemisia Maritima ) और ( ४ ) परदेशी दौना ( Artemisia Persica ) इत्यादि। इनके लिए उन उन नामों के अन्तर्गत वा धार्टिमिसिया देखो । यूनानो मत से -
प्रकृति- - यह प्रथम कक्षा में उच्ण और द्वितीय कक्षा में रूत है । हानिकर्त्ता मस्तिष्क 1 व श्रामाशय को निर्बल करता, शिरः शूल ! उत्पन्न करता तथा रूक्षता की वृद्धि करता है । दर्पण - अनीसून, मस्तगी, नीलोफ़र या शर्बत श्रनार । प्रतिनिधि - ग़ाफिस और सारून | मात्रा - ३ मा० से ७ मा० तक चूर्ण रूप में सामान्यतः ४-४॥ मा० धौर काथ रूप में ६-७ मा० तक प्रयोग में ला सकते हैं ।
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गुण, कर्म, प्रयोग - (१) रोधीघाटक है। क्योंकि इसमें कटुता और चरपराहट ( २ ) संकोचक है | क्योंकि इसमें कषायपन हैं; और कश्यपन ( वा कब्ज़ ) पृथ्वी तत्व के कारण प्राप्त होता है और पृथ्वी तत्व रूक्ष होता है । इसके अतिरिक्त इसमें कटुता भी हैं और कटुता भी तीक्ष्ण एवं तीव्र पार्थिव तत्व ही से हुआ करती है और यह स्पष्ट है कि तीक्ष्ण पार्थिव तत्त्र के भीतर रूक्षता का प्राधान्य होता हैं । इसके अतिरिक इसके स्वाद में चरपराहट भी है और यह श्रग्नि तत्व के कारण हुआ। करता । इस कारण से भी यह रूक्ष है । अतएव इससे यह निष्पक्ष हुआ कि अफ़सन्तीन दो प्रकार के सत्रों के योग द्वारा निर्मित हुआ है(१) उष्ण सत्व - कटु, सारक और चरपरा है और (२) दूसरा सत्व पार्थिव एवं संकोचक है । ( ३ ) मूत्र एवं प्रवर्तक है । क्योंकि इसके भीतर तख्तोफ. ( मलशोधन, द्रवजनन) और तफ़्तीह (अवरोध उद्घाटन ) की शक्रि है । (४) पित्त को दस्तों के द्वारा विसर्जित करता है । क्योंकि इसमें जिला (कांतिकारिणी ) शक्ति
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अफसन्तीन
विद्यमान हैं जो इसके भीतर कडुग्राहट के कारण पाई जाती है । स्तम्भिनी ( क़ाबिज़ह ) शक्ति भी इसमें वर्तमान है जो श्रत्रयत्र को श्राकुञ्चित एवं बलिष्ट करती है। इससे क्रुब्बत दाक्रिचह् ( प्रक्षेपक वा उत्सर्जन शक्ति ) को शक्ति मिलती है और (दस्त श्रा जाते हैं ) | ( ५ ) इसका स्वरस श्रामाशय के लिए हानिकर है । क्योंकि यथार्थतः स्वरस असन्तीन के अवयव से अधिक उष्ण एवं तीक्ष्ण होता है। इसलिए कि स्वरस में पार्थिवांश जो कि शीतल होता हैं, नहीं आता । श्रतएव इसका स्वरस अपनी तीच्णता एवं उष्णता के कारण श्रामाशयिक द्वार को शकि प्रदान करता है। बल्कि इसके जिर्म ( फोक ) में शेष रह जाता है और निचोड़े हुए रस में नहीं निकलता। (६) हाँ ! स्वरस में प्रक्रन्तीन की अपेक्षा अधिकतर जयकारिणी ( विलायक ) तथा वरोधाद्धादकीय शक्ति होती है, जिसके कारण यह कामला ( यक़न ) के लिए लाभदायक है । इसका जिर्म और इसका शर्बत श्रामाशय एवं यकृत् को बलप्रद है । जिम के बल्य होने का कारण यह है कि उसके भीतर स्तम्भिनी (काबिज ) श िकाफ़ी होती है । अतएव वह प्रति दो अवयवों को शक्ति प्रदान करता है । शर्बत इसलिए बल्य है कि उसमें स्तंभक ( क़ाबिज़ ) एवं सुगन्धिन श्रोषधियाँ सम्मिलित की जाती हैं । उसमें क्षोभ एवं तीच्णता भी नहीं होती । शर्बत बनाने की कई विधियाँ हैं । कोई इस प्रकार बनाता है। :असन्तीन को अंगूर के शीश में भिगो देते हैं और तीन मास तक छोड़ रखते हैं । और कोई इस तरह बनाता है कि श्रसन्तीन को सुगन्धित दवाओं के साथ दो मास पर्यन्त अंगूर के शीरे में भिगो रखते हैं अतः यह शर्बत अपने स्तम्भक एवं क्षोभ रहित सौरभ के कारण आमाशय और यकृत् को शक्ति प्रदान करता है । ( १ ) अफ़सन्तीन अर्श के लिए उपयोगी है । क्योंकि श्रर्श का रोग स्थल चूँकि मुख तथा आमाशय से दूर स्थित है और वहाँ तक इसकी शक्ति निर्बल होकर पहुँचती है। इस लिए
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